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________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * १४३ * जागृति और क्रियान्विति से लाभ की बात को जानते-मानते हुए भी उन्हें जाग्रत और क्रियान्वित करने टालमटूल करते रहते हैं। वे भी इससे होने वाली उपलब्धियों से वंचित रह जाते हैं। कई लोग पूर्वोक्त प्रकार से आत्म-शक्तियों का दुरुपयोग करते हैं, वे भी अपनी शक्तियों का अपव्यय दुर्ध्यानाचरण, प्रमादाचरण, हिंसा या हिंसाजनक वस्तुओं को प्रदान, पापकर्मोपदेश, कामोत्तेजक चेष्टाओं, वासनावर्द्धक अश्लील दृश्य, श्रव्य, अभक्ष्य खाद्य-पेय तथा स्पृश्य वस्तुओं का उपयोग करके शक्ति को बर्बाद कर देते हैं। कई लोग अधिकार, पद, सत्ता एवं प्रतिष्ठा के नशे में या हिंसाादि पापकृत्य करके अमूल्य शक्तियों का सर्वनाश कर डालते हैं। कई साम्प्रदायिक नशे में विवेक खोकर परनिन्दा, बदनामी, चुगली आदि पापों में वृद्धि करते हैं. वे अपनी आत्मा और आत्म-शक्तियों की सुरक्षा नहीं कर पाते। परन्तु सच्चे आत्मार्थी मुमुक्षुसाधक आत्मवान् बनकर विविध परीषहों और उपसर्गों पर विजय पाने में, बाह्याभ्यन्तर द्वादशविध तपश्चरण में. आम्रवों के निरोध तथा संवर के हर मौके को न चूकने में, सत्रह प्रकार के संयम में, निरर्थक एवं अनुपयोगी अनावश्यक उपयोग करने पर अपने अंगोपांगों तथा इन्द्रियों पर ब्रेक लगाने में, उनकी चंचलता को रोकने में, अपनी आत्म-शक्तियों का सदुपयोग करते हैं। साथ ही अपनी आत्म-शक्तियों को क्षति पहुँचाने वाले ज्ञानावरणीयादि चार घातिकर्मों से जूझते हैं। दर्शनमोह और चारित्रमोह, जो आत्म-शक्तियों के विकास में बाधक बनते हैं, उन्हें भी पूर्वोक्त उपायों क्षय, क्षयोपशम और उपशम करके अप्रमत्त होकर संवर-निर्जरा करके हटाते हैं। मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कपाय और अशुभ योग, राग. द्वेष, मोह आदि के आक्रमणों से स्वयं की आत्मा को जाग्रते रहकर बचाते हैं। अधिकांश मानव अपनी आत्मा में निहित ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति का सदुपयोग न करके. विपरीत मार्ग में लगाकर दुरुपयोग कर रहे हैं। दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय, जो आत्म-शक्तियों के प्रबल शत्रु हैं, उन्हें निम्नोक्त कारणों से और बढ़ावा दे रहे हैं-(१) केवलज्ञानी अर्हन्त का, केवनिप्ररूपित (रत्नत्रयरूप) धर्म का. आचार्य और उपाध्याय का, चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघ का, परिपक्व तप तथा ब्रह्मचर्य के पालन करने से जो जीव देव हुए हैं, उनका अवर्णवाद (निन्दा) करके दर्शनमोहनीय कर्म का बन्ध करते हैं। (२) तीव्र क्रोध-मान-माया-लोभ करके तथा तीव्र दर्शनमोह-चारित्रमोह से चारित्रमोहनीय कर्मबन्ध करते हैं। इसी प्रकार अन्तराय कर्म की दानादि पाँच लब्धियों (शक्तियों) का उपयोग आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्वल व्यक्तियों को आत्मिक दुःख-निवारण का उपदेश प्रदान न करके, अनन्त ज्ञानादि आत्म-गुणों का लाभ प्राप्त न करके, आत्म-गुणों तथा स्वभाव में एक बार तथा रमण करने की-स्थित रहने की शक्ति का भोग व उपभोग न करके तथा पूर्वबद्ध कर्मों की तप. त्याग, प्रत्याख्यान, संयम, नियम, परीषह-उपसर्ग विजय, सहाव्रत. व्रत आदि से निर्जरा (एक देश से क्षय) न करके एवं नये आते हुए कर्मों का निरोध (संवर) न करके अपनी उन पूर्वोक्त पंचविध आत्म-शक्तियों का उपयोग काम, क्रोध, लोभ आदि कपाय एवं विषयासक्ति बढ़ाने में दान देकर तथा भौतिक सुख-सुविधाओं, साधनों आदि की प्राप्ति में रात-दिन एक करके, पंचेन्द्रिय विषयों का आसक्तिपूर्वक भोग-उपभोग करके तथा खानपान, ऐशआराम, भोगविलास 'आमोद-प्रमोद आदि में अपनी इन्द्रियों तथा मन की शक्तियों को वर्वाद करके अपनी आत्म-शक्तियों के विकास के मार्ग में अन्तराय कर्मबन्ध करके स्वयं रोड़ा अटकाते हैं। अपनी आत्म-शक्तियों को खण्डित एवं क्षत-विक्षत कर देते हैं। इस प्रकार अपनी बहुमूल्य आत्म-शक्तियों को जहाँ लगनी चाहिए थीं, वहाँ न लगाकर नये कर्मों के आस्रव तथा बन्ध को न्यौता देने में। ___ कई महाव्रती या उच्चकोटि के साधक भी सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की साधना-आराधना से आत्म-शक्तियाँ उपलब्ध करके भी मोहमूढ़ होकर जाति आदि का मद (अहंकार) करके गर्वस्फीत होकर या नो भरतपुत्र त्रिदण्डी मरीचि की तरह नीचगोत्र कर्मबन्ध कर लेते हैं या अर्जित की हुई महामूल्य आत्म-शक्ति को विश्वभूति मुनि की तरह आसुरी-शक्ति में वदल देते हैं या सम्भूति मुनि की तरह चक्रवर्ती पद एवं गनी की प्राप्ति का निदान करके अर्जित आत्म-शक्ति को कौड़ियों के मूल्य में वेच देते हैं। आराधक बनने के बदले विराधक बन जाते हैं। जन्म-मरण का अन्त करने के बदले अनेक बार पुनः पुनः जन्म-मरण करके जीवन को घोर दुःख में डाल देते हैं; दर्लभबोधि बन जाते हैं, भविष्य में आत्म-शक्तियाँ प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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