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* १४२ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
उद्विग्नता चिन्ता आदि बढ़ती है। अतः मुमुक्षु आत्मार्थी मोक्ष-सुख को छोड़कर पर-पदार्थों से सुख की वांग्मा नहीं करता. न ही वह इष्ट-वियोग-अनिष्ट-संयोग में दुःखी होता है। वह आत्मानन्द में ही मग्न रहता है। .
परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति परमात्मा की तरह सामान्य मानवात्मा में भी अनन्त आत्मिक-शक्ति
प्राणियों में सबसे अधिक विकसित चेतना-शक्ति तथा अध्यात्म की मंजिल तक पहुँचने की क्षमता मनुष्य में है। परमात्मा या शुद्ध आत्मा के स्वभाव का चतुर्थ रूप है-अनन्त आत्मिक-शक्ति (बलवीर्य)। अतः परमात्मा की तरह मानवात्मा में भी अनन्त शक्तियों का सागर लहरा रहा है, किन्तु परमात्मा में वे अनन्त शक्तियाँ जाग्रत हैं, अभिव्यक्त हैं, जबकि मानवात्मा में वे अभी सुषुप्त हैं, अनभिव्यक्त हैं, दबी हुई हैं, . कुण्ठित या मूर्छित हैं, प्रस्फुटित नहीं हैं।
मानवात्मा में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र अथवा अनन्त आत्मिक अव्याबाध-सुख एवं अनन्त आत्मिक वीरता (वीर्य) की शक्ति है। ये चारों शक्तियाँ समस्त आध्यात्मिक शक्तियों की जड़ हैं। इनका मूल स्रोत-मूल उद्गम-स्थल या पावर हाउस आत्मा है। इन आध्यात्मिक शक्तियों की ही अनेक : धाराएँ जीव के शरीर के दंशविध प्राणों में विद्युत्धाराओं के समान पहुँचती हैं। आत्म-शक्तियों के तीन प्रकार के प्रतिनिधि मानव : कार्य और परिणाम ____ मनुष्य के पास इन आध्यात्मिक शक्तियों का होना एक बात है, उनका सदुपयोग करना, उन्हें जाग्रत, अभिव्यक्त या विकसित करना दूसरी बात है। भौतिक शक्तियों में विश्वास करने वाले बहुत-से लोगों को यह पता भी नहीं है कि इन शक्तियों का मल स्रोत ये आध्यात्मिक शक्तियाँ हैं. पर्वबद्ध शभ कर्मों के फलस्वरूप कतिपय लोगों को शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या भौतिक शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं, परन्तु वे हत्या, संहार, ठगी, लूटपाट, डकैती, चोरी, बलात्कार, अपहरण, आतंक, भ्रष्टाचार, अन्याय, अत्याचार, शोषण, परदमन आदि में उन शक्तियों का दुरुपयोग करते हैं। अथवा कई लोग पूर्व पुण्य-फलस्वरूप उपर्युक्त भौतिक तथा आध्यात्मिक शक्तियाँ प्राप्त होने के बावजूद भी दान, शील, तप और भाव में अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप में उनका उपयोग ही नहीं करते, वे संवर, निर्जरा और तप; संयम का अवसर आने पर भी अपनी शक्तियों का उपयोग करने से कतराते हैं। कई लोगों को अपनी पूर्वोक्त मुख्य आध्यात्मिक शक्तियों का ज्ञान या बोध भी नहीं है, अनभिज्ञ होने के बावजूद वे जानने की रुचि भी नहीं रखते। प्रबल मोहकर्मवश वे अपने पारिवारिक जनों को भी इन आध्यात्मिक शक्तियों का सदुपयोग करने में विघ्न-बाधा उपस्थित करते हैं। बहुत-से लोगों को अपने में इन आध्यात्मिक शक्तियों का अखूट खजाना ज्ञात न होने से अथवा ज्ञात होने पर भी या तो वे बाहर ही बाहर इन्हें खोजते हैं, या फिर वे अपनी शक्तियों को पर-पदार्थों को बटोरने में, भौतिक कार्यों में, येन-केन-प्रकारेण सत्ता और सम्पत्ति प्राप्त करने अथवा लड़ाई-झगड़ों में, शारीरिक बल बढ़ाने में अथवा इन्द्रियों की शक्तियों को विकसित करने मात्र में अपनी आध्यात्मिक शक्तियों का दुर्व्यय व दुरुपयोग करते हैं।
इस प्रकार आत्म-शक्तियों के प्रतिनिधि मानव तीन प्रकार के होते हैं-(१) शक्तियों का उपयोग ही न करने वाले, (२) शक्तियों का दुरुपयोग करने वाले, और (३) शक्तियों का सदुपयोग करने वाले। इनमें प्रथम और द्वितीय प्रकार के व्यक्ति आत्म-शक्तियों की उपलब्धियों से वंचित रहते हैं। प्रथम प्रकार के व्यक्ति “आत्म-शक्तियों का धड़ल्ले से उपयोग करने से वे शीघ्र ही समाप्त हो जायेंगी।" इस विवेकमूढ़ता और अदरदर्शिता के कारण शक्तियों के अनपयोग का दप्परिणाम यह होता है कि शक्तियों के स्रोत शीघ्र ही बंद हो जाते हैं वे अवयव भी काम करना बंद कर देते हैं। अकड जाते हैं. शिथिल होकर दर्द करने लगते हैं। शरीर के अंगोपांगों से जितना अधिक काम लिया जाता है, उतनी ही तीव्र गति से उनमें रक्तसंचार. अधिकाधिक सशक्त, स्फूर्तिमान् और पराक्रमी वनते हैं. इसी प्रकार आत्म-शक्तियों का भी उचित उपयोग न किया जाए तो वे सूखती व समाप्त होती चली जाती हैं। इस तथ्य को विविध उदाहरणों और युक्तियों द्वारा समझाया गया है। इसलिए बुढ़ापे में आत्म-शक्तियों के विकास में पराक्रम करेंगे अथवा आत्म-शक्तियों की
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