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* कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु * १४१ *
स्पष्ट है कि दर्शनावरणीय कर्म के उदय से आत्मा में केवलदर्शन तक की शक्ति है, उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो पाती; इतना ही नहीं नेत्र से, नेत्र के अलावा अन्य इन्द्रियों से, तथा इन्द्रिय और मन से रहित एक सीमा में आत्मा से सीधा जो दर्शन होना चाहिए वह नहीं हो पाता, तब आत्मा से सीधा त्रिकाल - त्रिलोक का दर्शन कैसे हो सकता है। इसीलिए जैनदर्शन ने चार कोटि के सामान्य बोध वाले दर्शनावरणीय कर्म बताए हैंचक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय । ये कर्म कैसे-कैसे, किन-किन कारणों से बँध जाते हैं ? जिनके कारण इनसे सामान्य बोध (दर्शन) भी जीव को नहीं हो पाता, इसका कर्मविज्ञान ने विशद विश्लेषण किया है।
अवधिदर्शन की अभिव्यक्ति धर्म-शुक्लध्यान से, कायोत्सर्ग से, प्रतिसंलीनता से, संवर और निर्जरा के आचरण से तथा भेदविज्ञान से हो सकती है। यानी इन उपायों से वस्तु का द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव का मर्यादायुक्त सामान्य बोध अवधिदर्शन में हो जाता है।
वैसे तो प्रत्येक आत्मा को केवलदर्शन की शक्ति प्राप्त है, वह जानता देखता भी है, यानी ज्ञाता - द्रष्टा भी है, परन्तु उसे वास्तव में देखना चाहिए शुद्ध आत्मा को परमात्म-तत्त्व को, आत्म-स्वभाव को या आत्म- गुणों को, उसकी अपेक्षा चलाकर अनावश्यक रूप से, राग-द्वेषादि विकारों से मिश्रित करके देखता है, सामान्य बोध करता है विविध ज्ञानेन्द्रियों से; तब भला यथार्थ दर्शन-शुद्ध आत्म-दर्शन कैसे हो सकता है ? वह बिना प्रयोजन के ही पर भावों, निर्जीव- सजीव पर पदार्थों को तथा अन्य व्यक्तियों या प्राणियों का देखने (सामान्य बोध करने) में अथवा पर भावों का रागादि विकारयुक्त सामान्य बोध करने में अपनी शक्ति लगा देता है। फलतः स्वभाव के दर्शन की शक्ति पर भावदर्शन में लग जाती है। आत्म-दर्शन के बाधक कारणों में पूर्वोक्त छह कारणों के अतिरिक्त दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय भी माने जाएँ तो अनुचित नहीं। अतः आत्म-दर्शनरूप स्वभाव की निष्ठा ही मुमुक्षुसाधक को अनन्त (केवल ) दर्शन तक पहुँचा सकती है। परमात्मा के स्वरूपदर्शन में स्थिरता समतायोग की निष्ठापूर्वक साधना से ही हो सकती है। इस तथ्य का कर्मविज्ञान ने स्पष्टीकरण किया है।
परमात्मा का तृतीय स्वभाव: अनन्त अव्याबाध-सुख ( परमानन्द)
सिद्ध-परमात्मा का जो तृतीय आत्मगुणात्मक स्वभाव है - अनन्त अव्याबाध - सुख ( परम आनन्द ) वही सामान्य आत्मा का स्वभाव है । प्रत्येक आत्मा में, विशेषतः प्रत्येक मनुष्य में अनन्त अव्याबाध आत्मिक सुख की शक्ति पड़ी हुई है, परन्तु वेदनीय, मोहनीय आदि अमुक कर्मों के आवरण के कारण उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो पाती। वह बाह्य इन्द्रिय-विषयों, मनोविषयों तथा मनोज्ञ-अमनोज्ञ पदार्थों, इन्द्रिय-विषयों, परिस्थितियों एवं व्यक्तियों के प्रति रागादिवश सुख-दुःखों की प्राप्ति की कल्पना छोड़कर एकमात्र आत्मिक आनन्द (सुखों) मग्न- तन्मय होता जाए तो अवश्य ही परमात्मा के अनन्त सुख - स्वभाव की ओर बढ़ सकता है । शक्तिरूप में स्वात्मा में निहित अनभिव्यक्त अनन्त आत्मसुख स्वभाव को अभिव्यक्त कर सकता है। वह आत्मिक अव्यांबाध (अव्याबाध आत्म-सुख ) किसी भी देश, काल, वस्तु और व्यक्ति (पर-पदार्थ) के प्रतिबन्ध से रहित हो, पर-पदार्थनिष्ठ, वस्तुनिष्ठ या व्यक्तिनिष्ठ क्षणिक सुखाभास को सुख मानकर व्यक्ति इस आत्मनिष्ठ सुख-स्वभाव से वंचित हो जाता है। वस्तुतः बाह्य-सुख पराधीन है, दुःख बीज है, जबकि आत्मिक सुख स्वाधीन है, शाश्वत है; देशकालपात्रादि से प्रतिबद्ध नहीं है, निराबाध है। उसे कहीं बाहर से नहीं लाना है, वह तो आत्मा में ही पड़ा है। ऐसा आत्मिक सुख अतीन्द्रिय, अव्याबाध, ऐकान्तिक और आत्मनिक है, वही परमात्मा का तथा सामान्य (शुद्ध) आत्मा का स्वभाव है। पौद्गलिक कर्मोपाधिक सुख . क्षणिक है, सुखाभास है, अनेक बाधाओं से युक्त है, कालान्तर में वही सुख-दुःखरूप हो जाता है। भगवान महावीर के शब्दों में मोक्ष (परमात्मपद) रूप एकान्त सुख वही प्राप्त कर पाता है, जिसकी आत्मा में अनन्त समग्र ज्ञान प्रकाशित हो उठे, अज्ञान और मोह जिसके जीवन से सदा के लिए विदा हो जाएँ और राग एवं द्वेष आदि विकारों का सम्यक् प्रकार से क्षय हो जाए। वास्तव में सच्चा सुख आत्मा में, अपने ही अन्दर है, किसी पदार्थ, व्यक्ति, घटना या परिस्थिति में नहीं। परनिमित्तक या पुण्यकर्मजनित सुख भी क्षणिक है, सुखाभास है, उसमें आसक्ति रखने से घोर कर्मबन्ध होता है। मोह-ममत्व आदि के कारण आकुलता, बेचैनी,
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