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________________ पाठकों से एक नम्र निवेदन आपने कर्मविज्ञान के प्रारम्भ से अब तक के भाग पढ़े। पाँचवें भाग के पढ़ने के बाद आपको ऐसा प्रतीत होता होगा कि जिन कर्मों का आत्मा के साथ पद-पद पर लगाव है, गठबन्धन है, जिनकी पकड़, आकर्षण और बन्धन से व्यक्ति का जीवन चतुर्गतिक रूप संसार में परिभ्रमण करता हुआ जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, चिन्ता, दु:ख दैन्य आदि नाना कष्ट पाता रहता है, पाता आ रहा है और प्राणी के न चेतने पर यानी बन्धन से मुक्त न होने तथा बन्धन के लिए आते हुए कर्मों को न रोकने पर भविष्य में भी नाना दुःख पाता रहेगा। उन कर्मों के निरोध, क्षय और परिवर्तन तथैव उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण के लिए जिन-जिन सिद्धान्तों, परिभाषाओं, स्वरूपों और उपायों का अब तक के भागों में वर्णन किया गया है, उनको सक्रिय रूप जीवन में आचरित करने के कौन-कौन-से सक्रिय उपाय हैं ? जिस प्रकार रोग से मुक्त होने या रोग को रोकने की बात कहने से रोगी को अपने अमुक रोग से छुटकारा पाने या उसको रोकने की बात समझ में नहीं आती, क्योंकि रोग के असंख्य प्रकार हैं, इतना ही नहीं, एक-एक रोग के भी तीव्र, मन्द आदि की दृष्टि से कई प्रकार हैं। इसलिए रोगी को तभी सन्तोष, शान्ति और आनन्द मिलता है, जब वह अपने विशिष्ट रोग को पहचानकर या उसका निदान करके उसका सक्रिय उपाय करता है। कर्मरोग के भी असंख्य प्रकार हैं, उनमें भी मोहनीय आदि में से किसी विशिष्ट रोग की भी कई किस्में हैं, उसको पहचानकर या उसका निदान करके फिर उसका सक्रिय उपाय करने पर भी कहाँ-कहाँ सावधानी रखनी है ? किन-किन पथ्य- परहेजों का पालन करना है ? इत्यादि तथ्यों का सम्यक् विवेक करने हेतु उसे बार-बार मार्गदर्शन चाहिए; तभी वह सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष की मंजिल को पाने के लिए आम्रव के बदले संवर, बन्ध के बदले निर्जरा और मोक्ष के महामार्ग पर चल सकेगा। इसी प्रमुख उद्देश्य से कर्मविज्ञान के छठे भाग में मुख्य रूप से संवर-तत्त्व और गौण रूप से निर्जरा-तत्त्व की साधना के विविध पहलुओं पर २४ निबन्धों में प्रकाश डाला गया है। तत्पश्चात् इसी के सातवें भाग में संवर-साधना के अवशिष्ट पहलुओं और निर्जरा से सम्बन्धित सक्रिय-साधना के कतिपय पहलुओं पर १६ निबन्धों में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इसके पश्चात् सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष की सक्रिय - साधना में सफलता के लिए १८ निबन्धों में प्रकाश डाला गया है । किन्तु मोक्ष-पुरुषार्थ की यात्रा के लिए आठवें और नौवें भाग के निबन्धों के क्रम कुछ गड़बड़ हो गई है। अतः पाठकों से हमारा अनुरोध है कि आठवें और नौवें भाग के निबन्धों को पढ़ते समय निम्नलिखित क्रम से पढ़ेंगे तो उन्हें मोक्ष का स्वरूप, उसकी प्राप्ति की योग्यता, अवश्यम्भाविता, उसके सोपान, उसके लिए अनिवार्य साधना और मोक्ष-प्राप्ति के सक्रिय उपाय तथा मोक्ष प्राप्त परम आत्माओं के जीवन की समग्र स्थिति का सम्यक ज्ञान हो सकेगा : Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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