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________________ * कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु * १३९* आज जो अधिकांश मानवों के अनन्त ज्ञान-दर्शन आवृत, अनन्त आत्मानन्द विकृत एवं अनन्त आत्म-शक्ति कुण्ठित, स्खलित मूर्च्छित हो रही है, आध्यात्मिक विकास के शिखर पर पहुँचने, सर्वकर्ममुक्तिरूप परमात्मपद या स्वभाव में अवस्थितिरूप मोक्ष प्राप्त करने के लिए आत्मा के चतुर्गुणात्मक स्वभाव में स्थिरता के उपायों तथा साधक-बाधक कारणों पर विचार करना अत्यावश्यक है। दीर्घदृष्टि से विचार किया जाए तो परमात्मा (शुद्ध आत्मा) का सर्वप्रथम मौलिक गुण, मूल स्वभाव हैअनन्त ज्ञान । वही आत्मा का मूल गुण है। आत्मा के साथ ज्ञान का अभिन्न और तादात्म्य सम्बन्ध है। द्रव्यार्थिकनय की या अभेददृष्टि से सोचा जाए तो ज्ञानगुण में शेष तीनों (दर्शन, सुख और बलवीर्य) गुणों का समावेश हो जाता है। पाश्चात्य विचारकों ने एकमात्र ज्ञानगुण में चारों आत्म-गुणों को समाविष्ट कर दिया है-ज्ञान ही श्रद्धारूप है, ज्ञान ही आनन्दमय है, ज्ञान ही चारित्रात्मक गुण है और ज्ञान ही शक्ति (वलवीर्य) है। आत्मा के अजर-अमरत्व - अविनाशित्व गुण के ज्ञान पर दृढ़ श्रद्धा या स्पष्ट दर्शन होने पर बड़े-से-बड़े संकटदुःख आने पर व्यक्ति आत्म-श्रद्धा-परमात्म-श्रद्धा से डगमगाता नहीं । त्रिकाल स्थायी, शाश्वत, अविकृत आत्मा का तत्त्वज्ञान तथा शरीर और आत्मा का भेदविज्ञान जिसके रोम-रोम में रम गया हो, वह किसी भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति के अनुकूल-प्रतिकूल होने पर ज्ञाता - द्रष्टाभाव से जरा भी विचलित नहीं होता । ज्ञान की तीव्र दशा ही चारित्रगुण है। आत्मा - अनात्मा का भेदविज्ञान सुदृढ़ हो जाने पर व्यक्ति को चाहे कितन भूख-प्यास-निद्रा- पीड़ा आदि के दुःख उठाने पड़ें, वह आत्मा के ज्ञानभाव में मस्त होकर जाता है, उसे कोई भी दुःख महसूस नहीं होता। इसी प्रकार आत्म-ज्ञान का प्रकाश हो जाने पर व्यक्ति अन्धा, बहरा, मूक या अपंग अथवा बेडौल होने पर भी दीन-हीनभावना न लाकर अत्यन्त आनन्दित आह्लादित एवं प्रसन्न रहता है। वह मृत्यु तक को हँसते-हँसते वरण कर लेता है । अध्यात्मज्ञान- पारंगत महर्षि आत्म-ज्ञान को महाशक्ति कहते हैं। ज्ञानवल से ही व्यक्ति अपने आपको कैसी भी परिस्थिति में अडोल, अडिग, दृढ़ तथा शान्त, संयमी, धैर्यधारक. सन्तुलित, मृदु एवं तटस्थ, स्व- पर भेदविज्ञान में रत रख सकता है। ज्ञान-स्वभाव से साधारण आत्मा तभी स्खलित होती या डिग जाती है, जब कोई सजीव-निर्जीव पर-पदार्थ, व्यक्ति या परिस्थिति के आने पर दर्पण की तटस्थ ज्ञाता-द्रष्टा या साक्षी न रहकर मन में राग-द्वेषादिभाव को या प्रिय अप्रिय आदि द्वन्द्व का संवेदन कर लेता है; ज्ञान-स्वभाव में स्थिर नहीं रह पाता। राग-द्वेषादि या कपाय- नोकषाय में से किसी का विकल्प न उठाए। भगवद्गीता में स्थितप्रज्ञ के रूप में तथा आचारांगसूत्र में स्थितात्मा के रूप में ज्ञान स्वभाव में स्थिर रहने वाले साधक के विशद लक्षण दिये गए हैं। ऐसा स्थितात्मा या स्थितप्रज्ञ इष्ट-वियोग या अनिष्ट संयोग में समभाव से जरा भी विचलित नहीं होता । कदाचित् कोई साधक अपनी भूमिका के अनुसार रागादि या कपायादि पर पूर्ण विजय प्राप्त न होने के कारण स्वभाव में या ज्ञाता-द्रष्टाभाव में स्थिर नहीं रह पाता हो, फिर भी वह उनके प्रति उदासीनभाव, वैराग्यभाव या निःस्पृहता रखता है, प्रतिकूल परिस्थिति में भी वह निमित्त को दोप नहीं देता, न ही तीव्र आर्त्तध्यान करता है, अपने उपादान (आत्मा) को टटोलता है और ज्ञानबल से समभाव में स्थिर हो जाता है। ज्ञान-स्वभाव में स्थिर होने के कतिपय मूलाधार ज्ञान-स्वभाव में स्थिर होने के कतिपय मूलाधार ये हैं- ( १ ) सम्यग्ज्ञान-प्राप्ति में बाधक प्रत्येक कारण से बचता है, साधक कारण को अपनाता है । (२) प्रत्येक अवश्य ज्ञातव्य वस्तु को जानता देखता है, किन्तु उसके प्रति राग-द्वेप, प्रियता-अप्रियता, मनोज्ञ-अमनोज्ञ या अनुकूल-प्रतिकूल भावों का संवेदन नहीं करता । (३) जिस ज्ञान से शान्ति, समता, समाधि और विरक्ति हो तथा जो ज्ञान रागादि विकारों तथा अज्ञान-मिथ्यात्व के अन्धकारों को दूर करने में सहायक हो, उसी सम्यग्ज्ञान को अपनाता है, इसके विपरीत मिथ्याज्ञान, मिथ्यात्वयुक्तज्ञान, कपायादि के उत्तेजक या वर्द्धक ज्ञान को वह नहीं अपनाता । भरत चक्री • सम्यग्ज्ञान के बल पर ही ज्ञान -स्वभाव में स्थिर रहकर देह-गेह, राज्य-वैभव आदि से निर्लिप्त रहते थे। अपने में ज्ञानादि स्वभाव का दृढ़ निश्चय करके एकाग्र हो जाओ जैसे नदी एक बार अपने उद्गम से सुसज्ज होकर बहने लगती है तो वह नाना मैदानों को पार करती हुई अन्त में समुद्र में मिल जाती है; वैसे ही यदि एक बार भी सम्यग्दृष्टि की ज्ञान ज्योति भलीभाँति For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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