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________________ * १३८ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * स्वभाव में स्थिर होने का अर्थ : अपने ज्ञान में ही स्थिर होना .. आत्मा और ज्ञान केवल कहने के लिए भिन्न हैं, निश्चयदृष्टि से ये भिन्न नहीं हैं। अतः किसी पदार्थ, व्यक्ति, परिस्थिति या भाव से सम्पर्क चाहे इन्द्रियों से हो, मन से हो या वचन से; उनको जानने-देखने तक ही सीमित रखना ज्ञानमय स्वभाव में स्थित रहना है और ज्ञानमय स्वभाव में स्थिर रहना ही स्वभाव में स्थिर रहना है। परन्तु जब वह व्यक्ति ज्ञानात्मक स्वभाव से हटकर या उसे भूलकर, विभावात्मक परभाव में बह जाता है। ज्ञान की निर्मल धारा में राग, द्वेष, अहंत्व, ममत्व या कषायों का संवेदनात्मक कीचड़ मिला, मिथ्यात्व और अज्ञान का कालुष्य भी मिला। फलतः ज्ञान की वह शुद्ध धारा न रहकर संवेदन की धारा बन जाती है। निखालिस ज्ञान की भूमिका में किसी प्रकार के संवेदन का स्वीकार नहीं होता। अतः किसी भी सजीव-निर्जीव पर-पदार्थ को सिर्फ जानना-देखना, किन्तु उसके प्रति किसी प्रकार का प्रिय-अप्रिय आदि का संवेदन न करना अस्वीकार की स्थिति है। कोरा ज्ञान या कोरा दर्शन अस्वीकार की स्थिति है, वही शुद्ध आत्मा का स्वभाव है, जब स्वभानिष्ठ आत्मा परभाव का अस्वीकार कर देता है, तब उसमें परभाव का प्रभाव, संवेदन, संक्रमण या प्रेवश नहीं हो सकता, संवेदन करना स्वीकार की स्थिति है। स्वभावनिष्ठ की स्वभाव में स्थिरता क्रमशः तीन धाराओं में ___ सम्यग्दृष्टि आत्मार्थी की निवृत्ति के क्षणों में स्वभाव में स्थिरता अनुभवधारा के रूप में रहती है, प्रवृत्ति के क्षणों में लक्ष्यधारा के रूप में और सुपुप्त अवस्था के दौरान आत्मा की प्रतीतिधारा के रूप में रहती है। इसका समग्ररूप से विश्लेषण कर्मविज्ञान ने किया है। निष्कर्ष यह है कि सम्यग्दृष्टि मुमुक्षु आत्मा किसी भी अवस्था में हो, उसे आत्म-विस्मृति नहीं होती। उसके अन्तःकरण में आत्म-स्मृति अथवा आत्म-स्वभाव में स्थिरता की जागृति अनुभव, लक्ष्य और प्रतीति की धारा के रूप में वहती रहती है। इस प्रकार की आत्म-स्वभाव में सतत दृढ़ स्थिरता ही परमात्मभाव या परमात्मपद-प्राप्ति का मूलाधार है। चतुर्गुणात्मक स्वभाव स्थितिरूप परमात्मपद-प्राप्ति कैसे हो ? __ मोक्ष-प्राप्ति के लिए या आत्मा से परमात्मा बनने के लिए आत्मा के स्वभाव, स्वरूप या ज्ञानादि चार निजी गुण पूर्णरूप से विकसित, अनावृत और अभिव्यक्त होने आवश्यक हैं। आत्मा के मौलिक गुणात्मक स्वभाव के चार प्रकार ये हैं-(१) अनन्त ज्ञान, (२) अनन्त दर्शन, (३) अनन्त आनन्द (अव्याबाध-सुख), और (४) अनन्त आत्म-शक्ति (बलवीर्य)। मोक्ष-प्राप्त परमात्मा में इन चारों गुणात्मक स्वभावों की शक्ति और अभिव्यक्ति दोनों होती है, जबकि सांसारिक आत्मा में इस चतुर्गुणात्मक शुद्ध स्वभाव की शक्ति तो होती है, किन्तु अभिव्यक्ति पूर्ण रूप में नहीं होती। सिद्ध-परमात्मा की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए चतुविंशतिस्तव (लोगस्स) पाठ में कहा गया है"वे चन्द्रमाओं से भी अधिक निर्मलतर, सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान (तेजस्वी) और श्रेष्ठ समुद्र से भी अधिक गम्भीर हैं।" इन तीनों विशेषताओं का फलितार्थ सिद्ध-परमात्मा में निहित पूर्वोक्त चार अनन्त ज्ञानादिरूप चार आत्म-गुणों की विद्यमानता है। निश्चयदृष्टि से तो विशुद्ध आत्मा में भी ये चारों गुण विद्यमान हैं। परन्तु वर्तमान में ये मौलिक आत्म-गुण कर्मों से आवृत हैं, कुण्ठित हैं, सुषुप्त हैं एवं मूर्छित हैं। जिस प्रकार प्रखर प्रकाशमान सूर्य वादलों से आच्छादित होने पर उसका असीम प्रकाश और आतप धुंधला और शीतल हो जाता है. बादलों के हटते ही वह सूर्य पुनः जाज्वल्यमान प्रकाश और आतप के साथ तेजस्वी, प्रखर प्रकाशमान और सर्वांगरूप से विकसित हो उठता है. तथैव सामान्य आत्मा पर भी परभावों. विभावों और कर्म-मेघों का आवरण आ जाने से उसकी तेजस्विता, शक्तिमत्ता तथा अनन्त ज्ञानादि गुणात्मक स्वभाव आवृत, कुण्ठित और मन्द हो जाता है। ज्यों ही कोई स्वभावनिप्ट साधक ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की तथा स्वभाव-रमणता की शुद्ध साधना से इन आवरणों को हटा देता है, त्यों ही वह अपने अनन्त चतुष्टय गुणों को अनावृत, जाग्रत एवं प्रकट कर सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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