SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * १३१ * उनकी जितनी दीर्घ या ह्रस्व अवगाहना होती है, उससे १/३ (एक-तिहाई) भाग कम में सिद्धों की अवगाहना (अवस्थिति या व्याप्ति) होती है। जिनकी देह ५00 धनुष की होती है, उन सिद्धों की अवगाहना उत्कृष्ट ३३३ धनुष ३२ अंगुल की होती है। सिद्धत्व-प्राप्ति पूर्व जिनकी अवगाहना ७ हाथ की होती है, उनकी अवगाहना ४ हाथ १६ अंगुल की होती है। जिन मनुष्यों की अवगाहना सिर्फ २ हाथ की होती है, उनकी न्यूनतम अवगाहना १ हाथ ८ अंगुल की होती है। तथैव सिद्धत्व-प्राप्ति के समय जो कम से कम ८ वर्ष से कुछ अधिक आयु वाले तथा अधिक से अधिक एक करोड़ पूर्व की आयु वाले मानव ही सिद्ध हो सकते हैं। मुक्त आत्मा न तो पुनः कर्मबद्ध होता है और न पुनः संसार में आता है जैसे बीज के जल जाने पर उसमें पुनः अंकुरित (उत्पन्न) होने की शक्ति नहीं रहती, वैसे ही जिनके कर्म (सर्वकर्मरूपी) बीज सर्वथा जल जाते हैं, उनके पुनः संसाररूपी अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती। यानी मोक्षगमन के बाद पुनः संसार में लौटकर सिद्ध-परमात्मा कभी नहीं आते, क्योंकि संसार में जन्म-मरण का कारण है-कर्मचक्र, वह उनके सर्वथा नष्ट हो जाता है। अन्य दर्शनों ने भी इस तथ्य को स्वीकृत किया है। सर्वकर्ममुक्त सिद्धों की चार श्रेणियाँ प्रथम श्रेणी के मुक्तात्मा-जिनका कर्मभार अल्प, किन्तु साधनाकाल दीर्घ हो सकता है। न तो असह्य कष्ट सहने पड़ते हैं, न ही कठोर तप करना पड़ता है, यथा-भरत चक्रवर्ती। द्वितीय श्रेणी के मुक्तात्मा-कर्मभार भी अल्प, साधनाकाल भी अल्प। अल्प तप और अल्प कष्टानुभव करते हुए सहजभाव से मुक्त-सिद्ध होते हैं। जैसे-मरुदेवी माता। __ तृतीय श्रेणी के मुक्तात्मा-कर्मभार अधिक, किन्तु साधनाकाल अल्प। वे घोर तप और घोर कष्ट का अनुभव करके मुक्त होते हैं। यथा-गजसुकुमार मुनि। चतुर्थ श्रेणी के मुक्तात्मा-कर्मभार अत्यधिक, साधनाकाल भी दीर्घतर। दीर्घ तप, अधिक कष्ट। जैसेसनत्कुमार चक्रवर्ती। मुक्तात्मा के परिपूर्ण आत्मिक-विकास का क्रम निर्ग्रन्थ प्रवचनोक्त मार्ग द्वारा ज्ञानादि रत्नत्रय की प्राणप्रण से रलत्रय की साधना करने वाले साधकों के आत्म-गुणों का परिपूर्ण विकास तभी होता है, जब ज्ञानादि आत्म-गुण अनन्तत्व को प्राप्त हो जाएँ। जैनदर्शन अपूर्ण अवस्था को संसार ही कहता है, मोक्ष या सिद्धत्व नहीं अर्थात् जब तक ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य (शक्ति), सत्य और सुख आदि आत्मा के प्रत्येक निजी गुण अनन्त, परिपूर्ण और अनावृत न हों, तब तक उस साधक की मुक्ति या सिद्धि जैनदर्शन स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार की अनन्तता या • आत्म-गुणों की परिपूर्णता या अनावरणता साधक की अपनी साधना द्वारा ही प्राप्त होती है, किसी दूसरे के देने से नहीं सिद्धिं या मुक्ति की परिपूर्णता का क्रम शास्त्रीय शब्दों में इस प्रकार है-“सिझंति, बुझंति, मुच्चंति, परिनिव्वायंति, सव्वदुक्खणमंतं करेंति।" अर्थात् सिद्धि, मुक्ति पाने वाली आत्माएँ, सिद्ध (परिनिष्ठितार्थ = कृतकृत्य) हो जाती हैं, बुद्ध (अनन्त ज्ञानी हो जाती हैं, (सर्वकर्मों से) मुक्त हो जाती हैं, परिनिर्वाणयुक्त (परम सुख-सम्पन्न) हो जाती हैं तथा समस्त दुःखों का अन्त कर देती हैं। कर्मविज्ञान ने इन पदों का यही क्रम क्यों ? इसका भी युक्ति-तर्क-प्रमाण-पुरःसर समाधान किया है। सिद्धों के आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता के सूचक : आठ आत्मिक गुण सिद्धत्व-प्राप्ति के पूर्व सिद्ध-परमात्मा ज्ञानावरणीयादि अप्टविध कर्मों का समूल नाश करके कर्म, ... जन्म-मरण, शरीरादि से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं। कर्मों के कारण दबी हुई आत्मा की ज्ञानादि शक्तियों के मुक्त दशा में पूर्णतया अनावृत, जाग्रत एवं प्रगट हो जाने से मुक्तात्माओं के आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता के सूचक ८ आध्यात्मिक गुण प्रकट हो जाते हैं-(१) अनन्त ज्ञान-पंचविध ज्ञानावरणीय कर्म का समूल क्षय हो जाने से केवलज्ञानरूपी अनन्त ज्ञान प्रगट हो जाता है, (२) अनन्त दर्शनं-नौ प्रकार के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy