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* १३० * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
अवस्थित होना। सर्वकर्ममुक्त अमूर्त आत्मा शरीरादि पौद्गलिक पदार्थों की सहायता के ऊर्ध्वगमन करने के पीछे यानी अकर्मक (कर्ममुक्त) जीवों की ऊर्ध्वगति के निम्नोक्त छह कारण हैं-(१) कर्मों का संग छूट जाने से, (२) मोह के दूर होने से, (रागरहित होने से), (३) गति परिणाम (स्वभाव) से, (४) कर्मवन्ध के छेदने : से, (५) कर्मरूपी ईंधन के अभाव से, और (६) पूर्वप्रयोग से। इन सब पर कर्मविज्ञान ने विस्तार से विवेचन किया है।
सिद्ध-परमात्मा लोक के अग्रभाग में जाकर ही क्यों स्थिर हो जाते हैं ? इसका समाधान यह है कि आगे अलोक में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों ही क्रमशः गति और स्थिति में सहायता देने वाले न होने से अलोकाकाश में सिद्धों का गमन नहीं होता। सिद्धशिला : पहचान, अन्य नाम, सिद्धों का अवस्थान
सिद्ध-परमात्मा जहाँ जाकर शाश्वतरूप से अवस्थित हो जाते हैं, उसका नाम सिद्धशिला है। इसके आकार-प्रकार, लम्बाई-चौड़ाई इस प्रकार हैं-सर्वार्थसिद्धविमान (२६३ देवलोक) से १२ योजन ऊपर, ४५ लाख योजन की लम्बी-चौड़ी गोलाकार एवं छत्राकार है-सिद्धशिला। वह मध्य में ८ योजन मोटी और चारों
ओर से क्रमशः घटती-घटती किनारे पर मक्खी की पाँख से भी अधिक पतली है। वह पृथ्वी अर्जुन (श्वेत स्वर्ण) मयी है, स्वभावतः निर्मल है और उत्तान (उलटे रखे हुए छाते = छत्र) के आकार की है अथवा तेल । से परिपूर्ण दीपक के आकार की है। वह शंख, अंकरत्न और कुन्दपुष्प के समान श्वेत, निर्मल और शुभ्र है। उसकी परिधि लम्बाई-चौड़ाई से तिगुनी अर्थात् १,४२,३०,२४९ योजन की है। इस सीता नामक . ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी से १ योजन ऊपर लोक का अन्त (सिरा) है। इस सिद्धशिला के १ योजन ऊपर अग्रभाग में ४५ लाख योजन लम्बे-चौड़े और ३३३ धनुष ३२ अंगुल ऊँचे क्षेत्र में अनन्त-अनन्त सिद्ध-परमात्मा विराजमान हैं। इस सिद्धशिला के १२ नाम इस प्रकार हैं-(१) ईपत् (२) ईषत्प्राग्भारा, (३) तनु, (४) तनुतर, (५) सिद्धि, (६) सिद्धालय, (७) मुक्ति, (८) मुक्तालय, (९) लोकाग्र, (१०) लोकाग्र-स्तूपिका, (११) लोकाग्र-बुध्यमान, (१२) सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्व-सुखावहा। सिद्ध-परमात्मा इसी सिद्धलोक के एक देश में स्थित हैं। जिस प्रकार एक कमरे में रहे हए अनेक दीपों या बल्बों का प्रकाश परस्पर टकराता नहीं, मिल जाता है, एकरूप दृष्टिगोचर होने लगता है, इसी प्रकार अनेक सिद्धों के ज्योतिरूप आत्म-प्रदेश के अमूर्त होने के कारण परस्पर अवगाढ़ होकर एक-दूसरे में समाने में किसी प्रकार की बाधा या टकराहट उत्पन्न नहीं होती। इसलिए जहाँ एक सिद्ध है, वहाँ भव-क्षय हो जाने से अनन्त सिद्ध हैं, वे परस्पर अवगाढ़ हैं। उनसे भी असंख्यातगुणे सिद्ध ऐसे हैं, जो देशों और प्रदेशों से एक-दूसरे में
अवगाढ़ एवं स्पृष्ट होकर लोकान्त का स्पर्श किये हुए हैं। अनेक सिद्धों की अपेक्षा सिद्ध अनादि अनन्त हैं, किन्तु किसी एक सिद्ध की अपेक्षा से सिद्ध-परमात्मा सादि अनन्त हैं। मुक्त (सिद्ध) आत्माओं के केवलज्ञान में अनन्त ज्ञेय कैसे प्रतिबिम्बत होते हैं ?
मुक्तात्मा इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि से पदार्थों को न जानकर अतीन्द्रिय केवलज्ञान से पदार्थों को कैसे जानते हैं ? इसका समाधान यह है कि जैसे दर्पण के सामने पदार्थ अपने-आप प्रतिबिम्बित होने-झलकने लगते हैं, दर्पण को कोई प्रयास नहीं करना पड़ता; वैसे ही दर्पण-सम केवलज्ञान में समस्त पदार्थ प्रतिबिम्बित होने लगते हैं। केवलज्ञानी मुक्तात्मा को पदार्थों को जानने के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। प्रवचनसार के अनुसार-आत्मा ज्ञान-प्रमाण है और ज्ञान ज्ञेय के बराबर है। ज्ञेय है-समस्त लोक
और अलोक। अतः उनका अनन्त ज्ञान सर्वव्यापक है। भगवती आराधना के अनुसार-सर्वज्ञ का अनन्त ज्ञान एक साथ समस्त त्रिकालवर्ती पदार्थों को सूर्य की तरह प्रकाशित करता है। अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा उन्हें अव्याबाध-सुख की उपलब्धि हो जाती है। बाह्य पदार्थ भी उनके अतीन्द्रिय ज्ञान में झलकते हैं। सिद्धत्व-प्राप्ति बाद सिद्धों की अवगाहना, स्थिति, संहनन, संस्थान
सभी सिद्ध भगवान वज्रऋषभनाराच-संहनन में सिद्ध होते हैं, किन्तु छह संस्थानों (दैहिक आकार) में से किसी भी संस्थान से सिद्ध हो सकते हैं। देह का सर्वथा त्याग करके मोक्ष जाते समय अन्तिम समय में
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