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________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * १२९ * उदय में आते हैं। वीतरागक्षीणमोही हो जाने के बाद तेरहवें गुणस्थान में, कपाय के अभाव में अनुभागवन्ध और स्थितिबन्ध नहीं होता, त्रियोग के कारण केवल नाममात्र का सातावेदनीय प्रकृति का दो समय का प्रदेशबन्ध होता है, तीसरे समय में वह निर्जीर्ण होकर चौथे समय में अकर्म बन जाता है। दूसरी ओर केवलज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् वह केवली अरिहन्त अनगार शेष आयु को भोगता हुआ, जब अन्तर्मुहूर्त परिमित आयु शेष रहती है, तब वह योगनिरोध में प्रवृत्त होता है। पहले मनोयोग का, फिर वचनयोग का, तदनन्तर श्वासोच्छ्वास का निरोध करके पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण काल जितने समय में समुच्छिन्न-क्रियाऽनिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यान में लीन होकर वे वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, इन चारों अघातिकर्मों का एक साथ क्षय कर देते हैं। तत्पश्चात् औदारिक, तैजस्, कार्माणशरीर का भी सदा के लिए त्याग करके शरीररहित न होकर ऋजुश्रेणी से एक समय अस्पृशद्गतिरूप ऊर्ध्वगति से अविग्रहरूप से (बिना मोड़ लिये) सीधे लोकाग्र प्रदेश में स्थित हो जाते हैं, वहाँ वे साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग) युक्त अवस्था में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, सर्वदुःखों का अन्त कर देते हैं। जन्म-मरण के कारणरूप समस्त कर्मों का सर्वथा क्षय कर देने के कारण वे पुनः जन्म-मरण नहीं करते, न ही मोक्ष से लौटकर पुनः संसार में आते हैं। सिद्ध-परमात्मा : कैसे हैं, कैसे नहीं ? सिद्ध-परमात्मा राग-द्वेष को जीतकर अरिहन्त वनकर चौदहवें गुणस्थान की भूमिका को भी पार करके सदा के लिये जन्म-मरण से रहित हो जाते हैं। शरीर और शरीरसम्बद्ध सभी दुःखों से मुक्त होकर एकरस अनन्त अव्याबाध निराकुल आत्म-सुख (निजानन्द) में लीन रहते हैं, क्योंकि ये द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकार के कर्मों से रहित-अलिप्त हो गए हैं। औपपातिकसूत्र में उनके लिए निम्नोक्त विशेषण प्रयुक्त किये गए हैं-वे सिद्ध, बुद्ध, पारंगत, परंपरागत, कर्मकवच से उन्मुक्त, अजर, अमर, असंग, कृतकृत्य, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हैं और परिपूर्ण शुद्ध-मुक्त आत्म-दशा में रहते हैं। सिद्ध-परमात्मा आत्म-विकास की चरम सीमा पर हैं। शुद्ध आत्मा का स्वरूप ही सिद्ध-परमात्मा का स्वरूप है ___ आचारांगसूत्र में शुद्ध आत्मा का स्वरूप इस प्रकार दिया है-वह (शुद्ध आत्मा) न तो दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न चोकोर है, और न ही परिमण्डलाकार है। वह पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आयु-स्पर्श से रहित हैं। वह स्त्री, पुरुष, नपुंसक भी नहीं है। वह निराकार, निरंजन है, केवल : परिज्ञानरूप (ज्ञानमय) है। वह अनुपमेय है, अरूपी और अलक्ष्य है। उसके लिए किसी शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता। वह समस्त पौद्गलिक गुणों और पर्यायों से अतीत, शब्दों द्वारा अनिर्वचनीय, तर्क द्वारा अग्राह्य, मति द्वारा अनवगाह्य है। वह सत्-चिदानन्दमय शुद्ध आत्मरूप है। औपपातिकसूत्रानुसारसिद्ध-परमात्मा लोक के अग्रभाग में है वे मुक्तात्मा सादि-अनन्त हैं, अशरीरी हैं, जीवधन (सघन अवगाढ़ आत्म-प्रदेशों से युक्त) हैं, साकार-अनाकार-उपयोगयुक्त, निष्ठितार्थ (कृतकृत्य), निरंजन (निष्कम्प = निश्चल), नीरज, निर्मल, वितिमिर, विशुद्ध सिद्ध भगवान शाश्वतकाल-पर्यन्त अपने स्वरूप में संस्थित रहते हैं। "सिद्ध भगवान अलोक से लगकर रुकते हैं, लोक के अग्रभाग में जाकर प्रतिष्ठित हो जाते हैं। यहाँ मनुष्यलोक में शरीर का त्याग करके वहाँ (लोक के अग्रभाग में) जाकर शाश्वत सिद्ध हो जाते हैं।" "सिद्ध भगवान जिस सिद्धगति को प्राप्त हैं, वह शिव (सर्व उपद्रवरहित), अचल, अरुज (रोगरहित), अनन्त (अनन्त ज्ञेय पदार्थों से ज्ञायमान होने से), अक्षय (अक्षत्), अव्यावाध और अपुनरावृत्तियुक्त है।" सिद्धगति में सर्वकर्ममुक्त आत्मा कैसे और क्यों जाती है ? - जीव की यह सर्वकर्मविमुक्त दशा सिद्धदशा या सिद्धगति कहलाती है। सर्वकर्मबन्ध से मुक्त होते ही ४ बातें निष्पन्न होती हैं-(१) औपशमिक आदि भावों का व्युच्छन्न (नष्ट) होना, (२) (मन-वचन-काययुक्त) शरीर का छूट जाना, (३) मुक्त होते ही एकसमय मात्र में ऊर्ध्वगति से गमन करना, और (४) लोकान्त में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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