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* १२८ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध भी दो प्रकार का होता है-अनिकाचनारूप और निकाचनारूप। अनिकाचनारूप बन्ध तीसरे भव से पहले (तीर्थंकररूप में जन्म लेने से दो भव पूर्व) भी हो सकता है, क्योंकि तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध जघन्यतः अन्तःकोटाकोटि सागरोपम का बताया गया है। जबकि निकाचनारूप बन्ध . तीर्थंकर के भव से पूर्व तीसरे भव में अवश्य हो जाता है। अर्थात् निकाचितरूप से बँधा हुआ कर्म तीसरे भव पूर्व से लेकर तीर्थंकरभव में पूर्णतया (उदय में आकर उत्कृष्ट पुण्यराशि के रूप में) फलप्रदान करता (भुगवाता) है। दूसरे शब्दों में-नियमतः तीर्थंकर नामकर्म का निकाचनरूप से बन्ध तभी होता है, जब वह आत्मा तीसरे भव में तीर्थंकर (भावतीर्थंकर) होने वाला हो। निकाचना के फलस्वरूप एक तो वही मनुष्यभव, जिसमें तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध होता है, दूसरा देव या नरक का भव और तीसरा तीर्थंकर का भव। निकाचित बन्ध जो मनुष्यगति में ही होता है। नरक में भी अशान्ति नहीं, देवलोक में भी आसक्ति नहीं
देवलोक में जाने वाले भावी तीर्थंकर वहाँ के भोग-विलास के अपार साधन तथा सुख-सुविधामय वातावरण मिलने पर भी उनमें आसक्त नहीं होते, आनन्द नहीं मानते। नरक में जाने वाले भावी तीर्थकर भी एक ओर से नरक की अपार दुःसह वेदना में भी आत्म-जागृति, अपूर्व समाधिभाव रखते हैं तथा दूसरी ओर से परमाधामी देवों द्वारा अपार संताप दिये जाने पर उन पर अमैत्रीभाव या कषायभाव न लाकर सब प्रकार की दुर्भावना से रहित रहते हैं। सब कप्टों को स्वकृत कर्म का फल समझकर शान्तभाव से सहते हैं। किस-किस ने किस-किस अवलम्बन द्वारा निकाचित तीर्थकर नामकर्मबंध किया ?
मगध-सम्राट् श्रेणिक नृप ने क्षायिकसम्यक्त्व का स्पर्श करके, सुलसा श्राविका ने श्रावकधर्म का विशुद्ध पालन करके तथा भगवान ऋषभदेव एवं भगवान पार्श्वनाथ ने राज्य-ऋद्धि और सुखशीलता का त्याग करके सर्वविरतिरूप चारित्र एवं पवित्र साधुत्व की साधना द्वारा एवं भगवान महावीर ने नन्दन नृप के भव में राज्य त्यागकर मुनित्व अंगीकार करके एक-एक लाख वर्ष तक लगातार मासक्षपण तप करके तीर्थंकर नामकर्म का निकाचनबन्ध किया था। जैनदृष्टि से सर्वकर्ममुक्त मोक्ष प्राप्त
__ विदेहमुक्त सिद्ध-परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय दोनों में मौलिक.अन्तर
अनन्त ज्ञानादि चार आत्म-गुणों की परिपूर्णता में तथा घातिकर्मों के अभाव में अरिहन्त और सिद्ध-परमात्मा दोनों की समानता होने से दोनों को देवाधिदेव कोटि में गिना गया है। दोनों में मौलिक अन्तर यह है कि अरिहन्त शरीरधारी होते हैं, जबकि सिद्ध-परमात्मा अशरीरी। अहिरन्त देव चार घातिकर्मों क क्षय करके केवलज्ञानी (सर्वज्ञ) और केवलदर्शी (सर्वदर्शी) होते हैं, किन्तु शरीरधारी होने से चार अघातिकर्मों से युक्त होते हैं, जबकि सिद्ध-परमात्मा घाति-अघाति सभी कर्मों से, जन्म-मरण से, शरीरादि से, सर्वदुःखों से सदा के लिए सर्वथा मुक्त हो जाते हैं। इसलिए अरिहन्त को जीवन्मुक्त (सदेहमुक्त) और सिद्ध को विदेहमुक्त (पूर्णमुक्त) कहा जाता है। सर्वकर्मों से मुक्त होने की प्रक्रिया
कर्मवन्ध के मुख्य कारण दो हैं-योग और कषाय। कषाय प्रवल होता है, तब कर्म-परमाणु भी आत्मा के साथ तीव्ररूप में अधिक काल तक चिपके रहते हैं, और तीव्र फल देते हैं, परन्तु कपाय के मन्द होते ही कर्मों की स्थिति भी कम औ फलदान-शक्ति भी मन्द हो जाती है। जैसे-जैसे कपाय मन्द. वैसे-वैसे कर्मनिर्जरा भी अधिक तथा पुण्यबन्ध भी शिथिल होता जाता है। फलतः चार घातिकर्म-परमाणुओं के क्षय के साथ-साथ अघातिकर्म-परमाणु का आकर्षण और तीव्र बन्ध भी बंद हो जाता है। जो कर्म पूर्वबद्ध थे, वे प्रदेशरूप में
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