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* १३२ * कर्म - सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु
दर्शनावरणीय कर्म क्षय हो जाने से आत्मा का दर्शनगुण पूर्णतया प्रगट हो जाने से केवलदर्शनरूप अनन्त दर्शन प्रगट हो जाता है, (३) अनन्त अव्याबाध - सुख - दो प्रकार के वेदनीय कर्म क्षय से उन्हें अनन्त अव्याबाध- सुख प्राप्त हो जाते हैं। ( ४ ) क्षायिक सम्यक्त्व - दो प्रकार के मोहनीय ( दर्शन मोहनीय = चारित्रमोहनीय) कर्म के क्षय हो जाने के क्षायिक सम्यक्त्व तथा पूर्ण समता तथा पूर्ण निराकुलतारूप स्वरूप रमणरूप चारित्र गुण प्राप्त होता है । (५) अव्ययत्व (अक्षयस्थिति) - चारों प्रकार आयुष्यकर्म का क्षय हो जाने के सिद्ध-परमात्मा को अव्ययत्व ( अजर - अमरत्व ) गुण प्राप्त होता है । ( ६ ) अमूर्तिक ( अरूपित्व) - दो प्रकार के नामकर्म ( शुभ नाम, अशुभ नामकर्म) का क्षय हो जाने से सिद्ध भगवान में अमूर्तिक- अरूपित्व गुण प्रगट हुआ । (७) अगुरु-लघुत्व - दो प्रकार के गोत्रकर्म ( उच्चगोत्र- नीचगोत्र ) का क्षय हो जाने से सिद्ध भगवान अगुरु-लघुत्वगुण से युक्त गए। (८) अनन्त बलवीर्यत्वं (अनन्त शक्ति ) - पाँच प्रकार के अन्तरायकर्म का क्षय हो जाने से सिद्ध-प्रभु में अनन्त बलवीर्यत्व गुण प्रगट हुआ ।
इन्हीं आठ कर्मों से भेदों की दृष्टि से क्रमशः आठ कर्मों के ५ +९+२+२+४+ २. + २ + ५ = ३१ आवरणों के दूर हो जाने से सिद्धों में कुल ३१ गुण प्रादुर्भूत हो जाते हैं। सिद्धों के ये ८ या ३१ गुण पूर्ण आध्यात्मिक विकास के प्रतीक हैं। इन ८ विशिष्ट गुणों से सिद्ध-मुक्त आत्माओं की पहचान होती है तथा इन्हीं आठ विशिष्ट गुणों से सिद्ध-परमात्मा को सम्यक् रूप से जाँचा-परखा जा सकता है।
सिद्ध- मुक्त आत्माओं का गुणस्थान-क्रमारोह
सिद्ध-मुक्त आत्माओं का गुणस्थान - क्रमारोह इस प्रकार है- चतुर्थ गुणस्थान से उनके आत्म-विकास का क्रम शुरू होता है । सम्यक्त्व प्राप्ति आत्म जागृति का प्रथम सोपान है। तदनन्तर पाँचवें - छठे गुणस्थान माध्यम से आत्मा अपनी कर्ममुक्ति के लिए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के सहारे सम्यक्चारित्र का बल बढ़ाती है। ज्यों-ज्यों सम्यक्चारित्र के साथ अप्रमादपूर्वक सम्यक्तप की शक्ति बढ़ती है, त्यों-त्यों कर्मों का निरोध होने से द्रव्यभावात्मक पंचविध संवर से नई आती हुई और सकामनिर्जरा से पुरानी बँधी हुई कर्मवर्गणाएँ शिथिल या क्षीण होती जाती हैं। सातवें से आगे बारहवें गुणस्थान के सोपानों पर चढ़ते चढ़ते विशुद्धि में वृद्धि होने से आत्मा शरीरदशा में रहती हुई भी ४ घातिकर्मों के आवरण से सर्वथा रहित हो जाती है। तत्फलस्वरूप अनन्त ज्ञानादि चार आत्मिक गुण तो पूर्णतया प्रकट हो जाते हैं, बारहवें तेरहवें गुणस्थान में। जो भव या आयुष्य को टिकाये रखने वाली ४ भवोपग्राही अघातिकर्मवर्गणाएँ बाकी रही थीं, वे भी अन्त में १४वें गुणस्थान में छूट जाती हैं। कर्मों के बन्धनों से सर्वथा मुक्त वह आत्मा सिद्ध-बुद्ध, जन्म-मरणरहित, सर्वदुःखों से रहित पूर्ण शुद्ध परमात्मा बन जाती है।
सर्वकर्ममुक्तिरूप सिद्धि प्राप्ति के विषय में जैनधर्म की उदारता
जैनधर्म मोक्ष प्राप्ति या परमात्मपद प्राप्ति में किसी भी प्रकार के देश, वेश, जाति, धर्म-सम्प्रदाय, संघ, लिंग, वर्ण, रंग, परम्परा, क्रियाकाण्ड, दार्शनिक मान्यताओं आदि की रोक नहीं लगाता। जैनागमों में गुणपूजा और वीतरागता, पूर्णसमता (समभावभावितात्मा), कषायों से सर्वथा मुक्ति, राग-द्वेष-मोह, मिथ्यात्व आदि पर विजय को ही वह सर्वकर्ममुक्त मोक्ष प्राप्ति, सिद्धत्व प्राप्ति या परमात्मपद - प्राप्ति में मुख्य कारण है। जैन- कर्मविज्ञान की दृष्टि में देश, वेश, भाषा, लिंग, वर्ण, रंग, वय, स्त्री-पुरुष नपुंसक के भेद, धर्म-सम्प्रदायों के भेद, परम्पराएँ, मान्यताएँ गौण हैं । जैनधर्म के इस अनेकान्त, उदार गुणपूजा-प्रधान दृष्टिकोण के अनुसार १५ प्रकार में से किसी भी एक प्रकार से कोई भी भव्य मानव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो सकता है - ( १ ) तीर्थसिद्धा, (२) अतीर्थसिद्धा. (३) तीर्थंकरसिद्धा, (४) अतीर्थंकरसिद्धा, (५) स्वयंबुद्धसिद्धा, (६) प्रत्येकबुद्धसिद्धा, (७) बुद्धबोधितसिद्धा, (८) स्त्रीलिंगंसिद्धा, (९) पुरुपलिंगसिद्धा, (१०) नपुंसकलिंगसिद्धा. (११) स्वलिंगसिद्धा, (१२) अन्यलिंगसिद्धा, (१३) गृहीलिंगसिद्धा, (१४) एकसिद्धा, (१५) अनेकसिद्धा । विभिन्न अपेक्षाओं से सिद्धों की गणना
१४ प्रकार की अपेक्षा से सिद्ध संख्या - प्रज्ञापनासूत्रानुसार पूर्वोक्त १५ प्रकार के सिद्धों में से १४ प्रकार के सिद्धों की एक समय में गणना इस प्रकार है- तीर्थ की विद्यमानता में एक समय में १०८ तक,
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