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________________ * १२४ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * गुणवाचक अरिहंत-पद की व्यापकता और महत्ता जैनधर्म में पंचपरमेष्ठी नमस्कार महामंत्र में पाँच कोटि के आध्यात्मिक गुणों के विकास को प्राप्त महान् आत्माओं को नमस्कार किया गया है। ये पाँच पद किसी व्यक्ति-विशेष के नाम नहीं, गुणवाचक पद हैं। जैनधर्म मोक्ष-प्राप्ति में किसी भी वेश, देश, लिंग, भाषा, सम्प्रदाय-विशेष या अमुक विभूति-विशेष की रोक नहीं लगाता। वहाँ विधान है कि स्त्री भी, पुरुष भी. तीर्थंकर भी. सामान्य साधक भी. स्वलिंगी. गृहलिंगी, गृहस्थलिंगी एवं आत्मलिंगी मानव भी मुक्त हो सकते हैं, परन्तु सबके लिए एक ही शर्त है-राग, द्वेष, मोह, कषाय पर विजय की। जिसने भी इन पर विजय पा ली. वह भगवान, अरिहंत और केवलज्ञानी हो गया। 'नमो अरिहंताणं' में अरिहंत शब्द बहुत ही व्यापक है। इसीलिए नमो अरिहंताणं कहा है, 'नमो तित्थयराणं' नहीं। अरिहंतों के नमस्कार में भूत और वर्तमान के विषय में जितने भी केवलज्ञानी वीतराग हुए हैं या हैं, उन सबको नमस्कार हो जाता है। तीर्थंकर भी अरिहंत हैं, सामान्य अन्य केवलज्ञानी भी अरिहंत हैं। सभी अरिहंत तीर्थकर नहीं होते। इस मंत्र में तीर्थंकरत्व मुख्य नहीं है, अर्हद्भाव ही मुख्य है। जैन-कर्मसिद्धान्त के अनुसार तीर्थकरत्व औदयिक प्रकृति है, कर्म का फल है, जबकि अरिहंतदशा क्षायिकभाव है। वह किसी कर्म का फल नहीं, अपितु कर्मों के क्षय (निर्जरा) का ही फल है। तीर्थंकरों को नमस्कार भी अर्हद्भावमुखेन है, स्वतंत्र नहीं। सम्यक्त्व के पाठ में भी 'अरहंतो महदेवो' (अरहंत मेरे देव हैं) कहा गया है। अतः यहाँ व्यक्तिपूजा को मुख्यता नहीं, गुणपूजा को मुख्यता दी गई है। अरिहन्त तीर्थकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति हेतु विशिष्ट पुण्यातिशययुक्त महापुरुष ही तीर्थंकर होते हैं ___तीर्थंकर शब्द जैन संस्कृति का बहुत प्राचीन और महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्द है। जैनजगत् का प्रत्येक व्यक्ति इस शब्द से परिचित है और तीर्थंकरों के उपदेश, प्रेरणा ग्रहण करने तथा भक्ति, अर्चा और स्तुति करने के लिए उत्साहित एवं तत्पर रहता है। इसीलिए सामान्य अरिहन्तों (पूर्वनिबन्ध में बताये गए) लक्षणों और पुण्यातिशयरूप विशिष्ट अरिहन्तों (तीर्थंकरों) के लक्षण में थोड़ा-सा अन्तर है। मूलाचार, धवला और द्रव्यसंग्रह आदि में इनका एक सर्वसम्मत लक्षण है-जो अतिशय पूजा. सत्कार, नमस्कार करने तथा पंचकल्याणकरूप पूजा के योग्य हैं वे अर्हन्त (अरिहन्त) तीर्थंकर हैं। आध्यात्मिक गुणों में समानता होते हुए तीर्थकर अरिहन्त में उनसे अनेक बातों में अन्तर तात्पर्य यह है कि सभी प्रकार के अरिहन्त केवलीतीर्थंकर नहीं होते. अपितु कुछ विशिष्ट पुण्यातिशय वाले अरिहन्त या विशिष्ट केवली ही तीर्थंकर होते हैं, किन्तु जितने आध्यात्मिक गुण, अनन्त चतुष्टयरूप आत्मिक निजी गुण, घातिकर्मक्षय एवं अष्टादश दोषरहितता के गुण सामान्य अरिहन्त केवलियों में होते हैं, वे सब-के-सब गुण विशिष्ट अरिहन्तरूप तीर्थंकरों में होते ही हैं। उनके अतिरिक्त उनमें कुछ विशिष्ट लक्षण तथा गुण, अतिशय, अतिशय पुण्यराशि का उत्कर्ष, तीर्थंकरत्व-प्राप्ति के लिए कतिपय विशिष्ट कारण इत्यादि भी होते हैं। जैन-कर्मविज्ञान ने तीर्थकर अरिहन्त और सामान्य अरिहन्त केवली में ३५ बातों का अन्तर स्पष्ट बताया है। इससे यह भी स्पष्ट है कि तीर्थंकर-पद अपने आप में महत्त्वपूर्ण पद है। उसकी अपनी अलग पहचान है, कतिपय विशेषताएँ हैं। तीर्थ और तीर्थकर : स्वरूप और कार्य तीर्थंकर का शाब्दिक अर्थ है-तीर्थ का कर्ता, निर्माता, स्थापनाकर्ता अथवा तीर्थ का जीवन निर्माणकर्ता। तीर्थ का शब्दशः अर्थ होता है-जिसके द्वारा तैरा जा सके। तैरने की क्रिया दो प्रकार की होती है। एक तो जलाशय में रहे हुए पानी के तैरने की अथवा जहाँ महापुरुषों का जन्मादि.पंचकल्याणक में से कोई कल्याणक हुआ हो, वहाँ यात्रादि करने की क्रिया। दूसरी-संसाररूप समुद्र को तैरने-पार करने की। इन दोनों में से प्रथम क्रिया जिस स्थान में या जिसके अवलम्बन से होती है, उसे लौकिक तीर्थ कहते हैं। आजकल यह 'तीर्थ' शब्द लोक-व्यवहार में सिद्धक्षेत्र, पवित्र भूमि, सरोवर नदी के तट पर या पर्वतीय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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