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________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * १२३ * ध्यान करता है. वह वैसा ही बन जाता है. इस सिद्धान्त के अनुसार वीतराग अरिहंत का ध्यान करने से वीतरागता का भाव धारण करने लगता है, राग-द्वेषादिजनित कर्मवर्गणाएँ भी आत्मा से पृथक् होने लगती हैं, आत्मा से क्रोधादि कषायों के परमाणु हट जाते हैं। उनके स्थान पर समत्वभाव प्रस्फुटित होने लगता है। वह भी योगशास्त्रानुसार एक दिन वीतराग होकर घातिकर्मों से मुक्त हो जाता है। अरिहंतता तथा उसका ध्यान कारण बनता है और वीतरागता उसका कार्य। अरिहंत : अनेक रूप, स्वरूप और प्रकार तथा महत्त्व वैसे तो 'अरिहंत' शब्द से जुड़े ‘अरि' का अर्थ शत्रु है। परन्तु यहाँ वह बाह्य शत्रु के अर्थ में नहीं, आन्तरिक शत्रु के अर्थ में विवक्षित है। वे भावशत्रु अष्टकर्म, राग, द्वेष, कपाय, मोह; पाँचों इन्द्रियाँ (इन्द्रियविषयों के प्रति आसक्ति), परीषह-उपसर्ग आदि हैं अथवा इन्द्रियविषय, कषाय, वेदना और उपसर्ग ये साधना में बाधकभाव भी आन्तरिक शत्रु हैं। उनका हनन = नाश करने वाला अरिहंत है। अरिहंत के बदले अरहंत, अर्हन्त, अरुहंत, अरहोन्तर, अरथान्त; ये विभिन्न रूप और उनके विभिन्न अर्थ भी मिलते हैं। अरिहंत को 'भगवान' भी कहते हैं, जिनका जैनदर्शन में विशद लक्षण भी मिलता है। भक्तामर स्तोत्र, महादेवाष्टक आदि में अरिहंत को गुणवाचक शब्द बताकर उसके ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, बुद्ध, पुरुषोत्तम, महादेव आदि विभिन्न सार्थक नाम भी प्रयुक्त किये गए हैं। जैनागमों में अरिहंत के लिए 'जिन', वीतराग, सयोगीकेवली, अरहा आदि अनेक पर्यायवाची शब्द मिलते हैं। यों अरिहंत के अनेक रूप होते हुए उसका स्वरूप एक ही है, जिसका पहले निरूपण कर दिया गया है। इनके लिए केवली शब्द का भी प्रयोग होता है। परन्तु अरिहंत सयोगीकेवली होते हैं; सर्वप्रथम मोहकर्म का क्षय करके, शेष ज्ञानावरणीयादि तीन घातिकर्मों को भी जो एक साथ सर्वथा निर्मूल कर देते हैं, वे लोकालोक प्रकाशक तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिनभास्कर सयोगी (त्रियोगयुक्त) केवली होते हैं। उन्होंने केवललब्धि प्राप्त करके परमात्मसंज्ञा प्राप्त की है। जो निज शुद्ध आत्मा में एकीभावेन ठहरते हैं, वे केवली हैं। ऐसे केवली कई प्रकार के होते हैं-सामान्यकेवली, मूककेवली, अन्तकृत्केवली, उपसर्गकेवली और श्रुतकेवली; तथा तीर्थंकरकेवली और अयोगी (सिद्ध) केवली। सिद्ध-परमात्मा अयोगी-केवली होते हैं। सयोगी श्रुतकेवली के सिवाय शेष सभी सयोगी केवलज्ञानी होते हैं। जो श्रुतज्ञान द्वारा निश्चयदृष्टि से इस अनुभवगोचर केवल एक शुद्ध आत्मा को सम्मुख होकर जानता है, वह लोक को प्रकट जानने वाला ऋषिवर श्रुतकेवली कहलाता है। . . आध्यात्मिक विकास पूर्णता की अपेक्षा से सभी अरिहंत १२ गुणयुक्त एवं १८ दोषरहित होते हैं • तीर्थकरकेवली के अतिरिक्त अन्य सब प्रकार के केवली केवलज्ञान प्राप्त होने पर अरिहंत, अर्हन्, अरहन्त आदि कहलाते हैं। इनमें और तीर्थंकरकेवली में आध्यात्मिक गुणों की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। अरिहन्तों के आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता एवं वीतरागता की दृष्टि से जो १२ गुण बताये हैं, वे गुण सामान्यकेवली अरिहंतों में भी पाये जाते हैं। वे १२ गुण इस प्रकार हैं-(१) अनन्त ज्ञान, (२) अनन्त दर्शन, (३) अनन्त सुख, (४) क्षायिक सम्यक्त्व, (५) यथाख्यातचारित्र, (६) अवेदित्व, (७) अतीन्द्रियत्व, (८-१२) दानादि पाँच लब्धियाँ। तीर्थंकर अरिहंतों में पुण्यातिशय के कारण जो १२ गुण बताये गये हैं, वे इनसे कुछ भिन्न हैं। अगले निबन्ध में हम उस पर प्रकाश डालेंगे। ___इसी प्रकार अरिहन्तों को जो १८ दोषों से रहित बताया गया है, वे इन दोनों में पाये जाते हैं.. (१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय, (५) वीर्यान्तराय, (६) मिथ्यात्व, (७) अज्ञान, (८) अविरति, (९) काम (भोगेच्छा = वासना), (१०) हास्य, (११) रति, । (१२) अरति, (१३) शोक, (१४) भय, (१५) जुगुसा, (१६) राग, (१७) द्वेष, और (१८) निद्रा। ये १८ ही दोष ४ घातिकर्मों के सर्वथा क्षय न होने के कारण होते हैं, सामान्य अरिहन्तों और विशिष्ट अरिहन्तों (तीर्थंकरों) के चारों घातिकर्मों का सर्वथा क्षय हो जाता है, इसलिए दोनों प्रकार के अरिहन्तों में ये १८ दोष भी नहीं पाये जाते। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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