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________________ * १२२ * कर्म - सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु मुमुक्षुसाधक सर्वकर्ममुक्ति के उपायों को खोजता है, तब मोक्ष की परिभाषा को जानने तथा अपनी . आत्मा में भी मुक्तात्माओं जैसे अनन्त गुण निहित हैं, ऐसा पढ़ने-सुनने से ज्ञान तो होता है, परन्तु वह अनुभवयुक्त ज्ञान नहीं । कर्ममुक्ति का सक्रिय ज्ञान = अनुभव - सम्पृक्त ज्ञान या वास्तविक पथ या उपाय तो वही बता सकता है, जिसने यथार्थ मार्ग पर चलकर वीतरागता की या मुक्ति की मंजिल पा ली हो । अतः अरिहंत द्वारा बताई या मूक प्रेरणा से प्रेरित मोक्ष की सीढ़ियाँ पा जाने से मुमुक्षु बिना चक्कर या इधर-उधर के भटके बिना, मोक्ष की मंजिल तक पहुँच सकता है। अरिहंत - पद की जिज्ञासा, उसकी मुमुक्षा में प्राण-शक्ति का संचार करती है, जिससे मुमुक्षु की अन्तरात्मा में ऐसी स्फुरणा, ऊर्जा, साहसिकता, पराक्रमशीलता, प्रबल श्रद्धा एवं क्षमता प्राप्त हो जाती है कि वह अपने में सुषुप्त, आवृत या अरिहंतत्व को जाग्रत, अनावृत एवं आराधित करने को उद्यत हो जाता है। आराधक के द्वारा निःस्पृह, वीतराग या रोष-तोषरहित अरिहंत की स्तुति, भक्ति या आराधना की जाती हैं, उससे अरिहंत को कोई लाभ-हानि या तोष- रोष नहीं होता, आराधक उनकी आराधना - स्तुति के माध्यम से उनके गुणों का स्मरण करके अपनी आत्मा को जगाता है, अपने में सुषुप्त प्रच्छन्न और हन्तत्व कोजाग्रत व प्रगट करता है। आराधना का फल आराधक का ही स्व-पुरुषार्थ से मिलना है । अतः श्रद्धा-भक्तिपूर्वक निःस्वार्थभाव से इह-पारलौकिक किसी भी कामना - वासना - अपेक्षा से रहित होकर एकमात्र आत्मिक-विकास की दृष्टि से वीतराग प्रभु की स्तुति, भक्ति, कीर्तन, भजन, पुण्य स्मरण, आराधन, गुणानुवाद या स्वरूप - चिन्तन आदि करने से आराधक के कर्मों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम होता है, निर्जरा होती है, अथवा पापकर्मों का नाश तथा आत्म-विशुद्धि भी होती है। आराधक को आत्मिक प्रसन्नता भी प्राप्त होती है। अरिहंत की आराधना : अपनी ही आत्मा की आराधना है। अरिहंत की आराधना का फलितार्थ है - अपनी ही पूर्ण शुद्ध आत्मा की विशिष्ट आराधना; क्योंकि अरिहंतत्व आराधक की अपनी स्थिति, प्रकृति या अवस्था है, वह अभी अशुद्ध है, अपूर्ण है, कर्मावृत है, प्रसुप्त या प्रच्छन्न है, उसे शुद्ध, पूर्ण जाग्रत, अनावृत या व्यक्त करना है। अपने ही (शुद्ध) स्वरूप में स्वयं को अवस्थित होना है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र की न्यूनता एक अपूर्णता है, आत्मिक शक्ति की हीनता - न्यूनता तथा सांसारिक सुख-दुःख की अनुभूति या आत्मिक सुख की विस्मृति भी अपूर्णतां है। ये अपूर्णताएँ जब तक हैं, तब तक अपने में अरिहंतत्व का पूर्ण विकास सम्भव नहीं है । इन अपूर्णताओं को दूर करने के लिए अरिहंत के शुद्ध स्वरूप का चार चरणों में ध्यान करना आवश्यक है - मैं स्वयं अरिहंत हूँ, मुझमें अनन्त ज्ञान, अनन्त' दर्शन, अनन्त आत्मिक-शक्ति और अनन्त आत्मिक सुख विद्यमान है। इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति की पूर्णता का चार चरणों में ध्यान करने से अपने में अरिहंतस्वरूप प्रगट होने लगता है। जैसे बाह्य सजीव पदार्थ को उसके प्रति राग, द्वेष, मोह या कषाय का तीव्र भाव आने पर उसमें तल्लीनता आ जाने पर वह उस व्यक्ति के अन्तर में स्थापित हो जाती है, तब चेतना उसका मूर्तरूप या आकार धारण कर लेती है, उसी प्रकार अहिरंत परोक्ष या बाह्य पदार्थ के होते हुए भी उनकी विधिवत् ध्यान-प्रक्रिया से, उनमें तल्लीनता से अरिहंत को आन्तरिक बनाया जा सकता है। अरिहंत के विशुद्धरूप के ध्यानपूर्वक एकाग्रता - तल्लीनता, आत्मरूपता के साथ सतत अभ्यास से स्वयं के अरिहंत होने की तथा अरिहंतत्व की भावना व अनुभूति साकार -सी होने लगती है। वास्तव में, अरिहंतदर्शन आत्म-दर्शन है, यह जानने के लिए ही भगवान ने कहा- "आत्मा को आत्मा से देखो, अपनी आत्मा से सत्य-तथ्य को ढूँढ़ो। एकमात्र आत्मा को सम्यक् प्रकार से देखो।" आत्म-दर्शनाकांक्षी को अरिहंत के स्वरूपदर्शन में अपना आत्म-दर्शन करना चाहिए। इस प्रकार आत्म-दर्शन करने से साधक का मोह नष्ट हो जाता है। अरिहंत का ध्यान कैसे करना चाहिए? इस सम्बन्ध में विस्तार से प्रक्रिया बताई है। वस्तुतः भक्ति और अनुभूति ही अरिहंत की आराधना के दो सिरे हैं। भक्ति में मानना (Believing) है, अनुभूति में जानना (Feeling ) है । मानने में जीवन की नियमितता श्रद्धायुक्त होती है, जानने में आराधक अपने स्वभाव (प्रकृति) से जुड़ता है। " यद् ध्यायति, तद् भवति ।" - जो जिसका जैसा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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