SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * १२१ * चण्डरुद्राचार्य के नवदीक्षित शिष्य तथा उनके गुरु को तथा मृगावती साध्वी तथा उनके निमित्त से चंदनबाला आर्या जी को किन-किन कारणों से अल्पकालीन साधना से ही केवलज्ञान प्राप्त हो गया था? अर्थात् इनमें से कतिपय साधकों को, जो अपने पूर्व-जीवन में हिंसादि-परायण, विलासी, मन्द बुद्धि, चारित्रभ्रष्ट, चोर या क्रोधी आदि रहे हैं, दीक्षा लेने के साथ ही या दीक्षा न लेने पर भी झटपट केवलज्ञान कैसे प्राप्त हो गया? इसके विपरीत गौतम स्वामी जैसे सर्वाक्षर-सन्निपाती, चार ज्ञान के धारक भगवान महावीर के पट्टशिष्य को केवलज्ञान-प्राप्ति में इतना दीर्घकाल कैसे लगा? इसका एक समाधान तो पहले दिया जा चुका है। इसी से सम्बन्धित दूसरा समाधान यह है कि जिस व्यक्ति का राग-द्वेष-मोह-कषायादि सर्वथा क्षीण हो जायेगा, वह व्यक्ति पूर्व जीवन में चाहे जैसा भी रहा हो, वर्तमान में स्वभाव में रमण के कारण मोहादि चार घातिकर्मों का सर्वथा क्षय होते ही उसे केवलज्ञान हो जाता है। केवलज्ञान जाति-पाँति, धर्म-सम्प्रदाय, वेशभूषा, भाषा, राष्ट्र, प्रान्त आदि नहीं देखता। वह देखता है-कषायों का सर्वथा क्षय तथा राग, द्वेष, मोह की सर्वथा क्षीणता। केवलज्ञान प्राप्त होने के विचित्र और विभिन्न उपाय हैं। यही कारण है कि विभिन्न साधकों ने भिन्न-भिन्न उपायों से मार्गों से सावधानीपूर्वक चलकर उसे प्राप्त किया और प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु वह प्राप्त होता है-आत्मा के अनन्त ज्ञानादि चार गुणों की इन शक्तियों को स्व-पुरुषार्थ द्वारा प्रकट करने से। सूत्रकृतांग नियुक्ति के अनुसार-"पापी और नरकगतिगमन-सम्भावना वाला भी वीतराग के उपदेश को क्रियान्वित करके उसी भव में सिद्ध-मुक्त हो जाता है।'' इसलिए मोक्ष-प्राप्ति की अवश्यम्भाविता का मूलाधार केवलज्ञान है, जिसके प्रगट हुए विना सर्वकर्मक्षयरूप पूर्ण मोक्ष नहीं हो सकता। अरिहंत : आवश्यकता, स्वरूप, प्रकार, अर्हता, प्राप्त्युपाय चार घातिकर्मों का क्षय करने से वीतरागता, अर्हन्तता प्राप्त होती है, यह आप्तपुरुषों से तथा उनके द्वारा रचित-कथित आगमों तथा ग्रन्थों से जानने-सुनने के पश्चात् मुमुक्षु आत्मार्थी के मन में श्रद्धा तो उत्पन्न होती है; किन्तु प्रतीति तभी होती है, जब अपने समक्ष या तो घातिकर्म चतुष्टय का क्षय किये हुए वीतराग महान् आत्माओं को आदर्श के रूप में देखता है या फिर इन उच्चकोटि के साधकों (महाव्रतियों) से सुनता है या ग्रन्थों में पढ़ता है। उनकी उपलब्धियों के विषय में पढ़कर या जान-सुनकर उसे यह प्रतीति हो जाती है कि चार घातिकर्मों का क्षय करने की बात मनगढंत नहीं है। मेरे समक्ष जीते-जागते अरिहंत मौजूद हैं या उनके पथ पर चलने वाले अरिहंत-पद के आराधक विद्यमान हैं। मैं भी चाहूँ और पुरुषार्थ करूँ तो केवलज्ञानी अरिहंत बन सकता हूँ। दूसरी बात-अरिहंत की आवश्यकता इसलिए भी है कि आराधक मुमुक्षु जिस आराधक को या वीतरामता के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है, उस आदर्श का कोई प्रतीक अपने समक्ष हो तो उसे शीघ्र ही प्रतीति हो जाती है, फिर भले ही साध्य तक पहुँचने का मार्ग कठोर हो, सुख-सुविधारहित, अनेक परीषहों, उपसर्गों की उसमें सम्भावना हो, उसकी रुचि, स्पर्शना, पालना और अनुपालना उस साध्य या आराध्य के प्रति हो जाती है। तीसरी बात-इसलिए भी अरिहंत की आवश्यकता है कि इससे उसे यह प्रेरणा मिलती है कि वह मुमुक्षु भी अपने में सोये हुए, छिपे हुए अरिहंतत्व को जगाए। निश्चयदृष्टि से आराधक में आराध्य के सभी गुण मौजूद हैं, पर हैं वे सुषुप्त, आवृत और कुण्ठित। निश्चयदृष्टि से शुद्ध रूप से आत्मा ज्ञानादि से प्रकाशमान हैं, किन्तु आत्म-प्रदेशों पर विभिन्न कर्मों का आवरण पड़ा हुआ है, उसे दूर करने के लिए उन घातिकर्मरहित वीतराग शुद्ध आत्माओं (अरिहंत देवों) को आदर्श मानकर उनका तीव्रतापूर्वक ध्यान, स्मरण, गुणगान, भक्ति-स्तुति या उपासना-आराधना करने से साधारण आत्मा से वह व्यक्ति अरिहंत परमात्मा बन सकता है। अरिहंत : प्रेरणा दीप, महान् आलम्बन ___ अरिहंत देव की मूक प्रेरणा भी अपने आपको जानने, पहचानने, अपने अंदर सत्य (छिपे हुए शुद्ध रूप) को स्वयं ढूँढ़ने तथा आध्यात्मिक वैभव, सम्पदा और शक्ति को ढूँढ़ने, सम्प्रेक्षण करने की; तुम भी मेरी तरह अरिहंत बन सकते हो। अपने सम्बन्ध में विस्मृति को हटाकर। अतः परम आराध्य अरिहंत के स्वरूप का - चिन्तन, स्मरण, ध्यान करने तथा उनकी गुणात्मक स्तुति करने से व्यक्ति अरिहंत-पद को प्राप्त कर सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy