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* १२० * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
से केवलज्ञान हो गया था, तत्पश्चात् वे सिद्ध-मुक्त हुए। 'स्थानांगसूत्र' में बताया गया है कि राजा भरत के ८३ उत्तराधिकारी पुरुषयुग राजा गृहस्थ-वेश में ही केवली होकर सिद्ध-मुक्त हुए हैं। अन्य वेशधारी भी केवली और सिद्ध हो सकते हैं
सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने के जो १५ प्रकार बताए गए हैं, उनमें से एक है-अन्यलिंगसिद्धा। जैन-वेश के सिवाय अन्य परिव्राजक आदि के वेश में भी सिद्ध (मुक्त) हो सकते हैं, तब उनका केवली होना अनिवार्य है। शिवराजर्षि ने पहले दिशाप्रोक्षक तापस दीक्षा लेकर विभंगज्ञान प्राप्त किया; किन्तु शंकाकांक्षादिवश नष्ट हो जाने से भगवान महावीर से यथार्थ समाधान पाकर निर्ग्रन्थ प्रव्रज्या ली, साधना करके केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त किया। पुद्गल परिव्राजक भी इसी प्रकार केवलज्ञानी और सिद्ध हुए। असोच्चाकेवली और सोच्चाकेवली का वर्णन
भगवतीसूत्र में असोच्चाकेवली और सोच्चाकेवली का वर्णन है। जो केवली, केवलीपाक्षिक (स्वयंबुद्ध) तथा इन दोनों के श्रावक-श्राविका या उपासक-उपासिका, इनमें से किसी से बिना सुने ही केवलिप्रज्ञप्त धर्म का श्रवण से लेकर केवलज्ञान की प्राप्ति तक ११ प्रश्नों का 'हाँ' में उत्तर दिया है, किन्तु इन सब की प्राप्ति के पीछे एक ही विशिष्ट शर्त रखी है कि जिस-जिस को जो उपलब्धि होती है, उसके तदावरणीय (उससे सम्बन्धित कर्मावरण) का क्षयोपशम या क्षय होना अनिवार्य है। ___ असोच्चाकेवली वही हो सकता है, जिसने केवलज्ञानावरणीय कर्म का क्षय किया है। साथ ही असोच्चाकेवली में क्या-क्या अर्हताएँ होनी चाहिए? इसका भी वहाँ विस्तृत वर्णन है। आगे असोच्चाकेवली द्वारा उपदेश, प्रव्रज्या-प्रदान, सर्वकर्ममुक्ति, निवास तथा उनकी संख्या के विषय में भी विशद वर्णन है।
सोच्चाकेवली भी केवली, केवलीपाक्षिक आदि से सुनकर धर्म-श्रवण से लेकर केवलज्ञान तक की प्राप्ति कर सकता है, शर्ते वही हैं जो असोच्चाकेवली के सम्बन्ध में बताई थीं। सोच्चाकेवली उपदेश, प्रव्रज्या-प्रदान आदि से सम्बन्धित प्रश्नों का भी वहाँ समुचित समाधान दिया गया है। केवलज्ञान : स्वरूप और उसकी प्राप्ति के मुख्य और अवान्तर कारण
केवलज्ञान पूर्ण मोक्ष का मूलाधार है, इसके बिना सर्वकर्ममुक्ति का द्वार खुल नहीं सकता। केवलज्ञान वह है. जहाँ सिर्फ निखालिस ज्ञान ही ज्ञान हो, ज्ञान के साथ किसी प्रकार के विभावों-विकारों की मिलावट न हो। जो अकेला हो, निरालम्ब हो, जिसे किसी दूसरे पदार्थ, इन्द्रिय या अन्य ज्ञान की सहायता की अपेक्षा न हो, साथ ही जो परिपूर्ण ज्ञान हो तथा जो तीनों कालों और तीनों लोकों के समस्त द्रव्यों और पर्यायों को जानता हो, जिससे कुछ भी छिपा (प्रच्छन्न) न हो, जिसके होने पर द्रव्य और भाव अन्धकार न रहे, जिस पर किसी प्रकार का आवरण न रहे, उसे केवलज्ञान कहते हैं। केवलदर्शन भी केवलज्ञान का निराकारलप है। जैसे सूर्य में आतप और प्रकाश दोनों साथ-साथ रहते हैं, वैसे ही केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों साथ-साथ रहते हैं। सर्वप्रथम मोहकर्म के क्षय होने के पश्चात् शेष ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय तीनों घातिकर्मों का एक साथ क्षय हो जाना केवलज्ञान है। जिनका मोहकर्म पूर्णतया क्षीण हो चुका है, ऐसे क्षीणमोही अर्हन्त के इसके पश्चात् शेष तीनों कर्मों के अंश का एक साथ क्षय हो जाता है। उत्तराध्ययन में इसी को भेद-प्रभेद सहित बताया है-मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों का क्षय करने के पश्चात् ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की नौ और अन्तराय की पाँच; यों ४७ प्रकृतियों का समूल क्षय हो जाने पर केवलज्ञान प्रगट होता है। राग, द्वेप, कपाय और मिथ्यात्व, ये चारों मोहकर्म के बीजस्रोत हैं। अतः राग या कपाय, चाहे प्रशस्त भी हों, उनका थोड़ा-सा भी अंश केवलज्ञान-प्राप्ति में वाधक है। गणधर गौतम स्वामी को भगवान महावीर के प्रति प्रशस्तराग भी जब तक दूर नहीं हुआ. तब तक केवलज्ञान नहीं हुआ। दीर्घकालिक साधकों को चिरकाल से और अल्पकालिक साधकों को अल्पकाल में ही केवलज्ञान क्यों ? ___ रूपासक्त इलायचीकुमार, क्षुधा-असहिष्णु कूरगडूक मुनि, मन्दबुद्धि माषतुष, चारित्रभ्रष्ट अरणक मुनि, मानव हत्या से रत अर्जुन मुनि, मानव हत्यारत किन्त विरक्त दृढ प्रहारी. सामायिकव्रती केसरी चोर.
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