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* कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ११५ *
की दशा। इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव होने से वह शुक्नध्यान के द्वितीय पादपृथक्त्व-विचाररहित यानी एकत्ववितर्कविचार में पहुँच जाता है। ___ वस्तुतः आठवें से लेकर वारहवें गुणस्थान में पहुंचने से पहले तक की सभी भूमिकाएँ आशा-निराशा के झूले-जैसी हैं. इसीलिए तो इन गुणस्थानों का स्पर्श एक ही जन्म (भवशरीर) में एक मुहूर्त के अंदर-अंदर (अन्तर्महर्त में) अनेक वार हो जाता है। इस दौरान एक ओर से उच्चता का आकर्पण आन्तरिक और वाह्य दोनों प्रकार से कारणों से एकदम जोरों से खींचता है, तो दूसरी ओर से अध्यासों का प्रभाव उसे अपनी
ओर जकड़कर रखता है। जिस (क्षपकश्रेणी) साधक ने आमूलाग्र-शुद्धि हस्तगत कर ली है, वह अवश्य ही इन अध्यासों के जान से अपनी तीव्र शक्ति के बल पर बचकर उत्तरोत्तर ऊवारोहण कर चार घातिकर्मा को समूल नष्ट करने की परिपाटी के पथ पर पहुँच जाता है और अनन्त शुद्ध स्वभाव के अविच्छिन्न धाराप्रवाही चिन्तन का आनन्द लूटता है। परन्तु जिस (उपशमश्रेणी के) साधक की चारित्र-शुद्धि के मूल में ही भूल होती है, उसकी मौलिक अशुद्धि पर भावनाओं का महल एक वार खड़ा होता दिखता है, साधक इस भ्रम में रहता है कि मेरा मोह विलकुल निर्बल और क्षीणप्राय हो गया है. किन्तु वह शुद्ध स्वभाव का महल स्थायी नहीं रह पाता। मौलिक अशुद्धि रहने का कारण है-प्रवल सत्ता, प्रवल सामर्थ्य. प्रबल कालस्थिति और प्रवल रस-संवेदन वाला मोहराज। वह अभी उपशान्त है. क्षीण नहीं हुआ है। अप्रमत्तता का दौर खोई हुई इस उपशान्तमीही आत्मा का एक बार तो अवश्य ही पतन होता है।
दर्शनमोह का सागर पार करने के बाद चारित्रमोहरूपी स्वयम्भूरमण समुद्र भी क्षीणमोही साधक ने पार कर लिया। इसके मंथन से वीतरागता (समता की पराकाष्टा) सुधा प्राप्त हो गई। यानी अन्तिम समय (अन्तर्मुहूर्त परिमित समय) में वीतरागता की पराकाष्ठा पाकर केवलज्ञान (आत्मा के पूर्ण ज्ञान) के खजाने का साक्षात्कार करके, ऐसी तीव्र भावना और तदनुरूप उपलब्धि इस गुणस्थान में होती है।
जैसे मूल के सूख जाने पर वृक्ष के पैदा होने की सम्भावना नहीं रहती, वैसे ही मोहकर्म के जड़मूल से नष्ट हो जाने पर भविष्य में भववृक्ष के उगने की सम्भावना नहीं रहती, यानी आत्म-प्रभुता के गाढ़ आलिंगन से वंचित रखने वाले, आत्म-गुणों के आवारक या घातक चार घनघातिकर्मों से छुटकारा इस गुणस्थान में मिल जाता है तथा जन्म-मरणादिरूप संसार का बीज सदा के लिए विनष्ट हो जाता है। ऐसी स्थिति में सर्वभावों का ज्ञाता-द्रष्टा बनकर पूर्ण शुद्धि के साथ अविच्छिन्नरूप में रहता है। वीतगगता की . पराकाष्ठा सिद्ध होते ही आत्मा और परमात्मा के बीच का अन्तराय दूर हो जाता है। आवृत परम प्रकाशनिधि अनावृत हो जाती है। फलतः अनन्त प्रकाश और अनन्त वीर्य से देदीप्यमान प्रभुता इस भूमिका में प्राप्त हो जाती है।
चौदहवाँ सोपान : आत्म-विशुद्धिपूर्वक अनन्त ज्ञान-दर्शन तथा आयुष्यपूर्ण तक चार अघातिकर्म-आत्मा पूर्णरूप से विशुद्ध हुए बिना पूर्ण आत्म-विज्ञान नहीं हो सकता। ऐसा त्रिकालदर्शी परम आत्मा एक साथ विश्व का विराट् ज्ञान प्राप्त कर लेता है। उसका जानना-देखना और अनुभव करना ये दोनों अलग-अलग नहीं हैं, एकरूप हैं। इनकी ये क्रियाएँ इन्द्रियजन्य नहीं हैं. इसलिए क्षेत्र और काल का व्यवहार भी उनके त्रिकालज्ञ के लिए बाधक नहीं है। ऐसे जीवन्मुक्त वीतराग अनन्त चतुष्टय-सम्पन्न पुरुप को कृतकृत्यता, प्रभता. अनन्त वीर्यता और अनन्त (ज्ञान-दर्शन) प्रकाश उपलब्ध हो जाते हैं। साधक को पूर्णता प्राप्त हो जाने पर कुछ करना-धरना नहीं होता, क्योंकि उनके करने का कुछ भी विकल्प शेप नहीं रहता। इस भूमिका में पूर्ण परमात्मस्वरूप प्रभु के साथ एकत्व का अनुभव हो जाता है। यह तेरहवें गुणस्थान की भूमिका है।
इस भूमिका में चार घानिकर्म नष्ट हो जाने पर शेप चार अघातिकर्म (वेदनीय. आयु. नाम और गोत्र) शेप रहते हैं। जैसे हाथ पर बँधा रस्सा खुल जाने पर उसकी कोई पीड़ा नहीं होती है. वैसे ही माहनीयादि चार घातिकर्म का बन्धन छूटने के वाद शेप रहे चार अघातिकर्मों से आत्मा पीड़ित नहीं होती। अर्थात् वे वेदनीयादि चार कर्म भी, जैसे रस्सी जलकर खाक हो जाने पर भी उसकी आकृति बनी रहती है, वैसे ही आकृति रूप में रहते हैं और उस भवशरीर का जितना आयुष्य होता है. उतना पूर्ण करने के लिए
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