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* १०२ * कर्म - सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु
हैं। मृत्यु पहले पर विराधक की और दूसरे पर आराधक की छाप लगाकर चली जाती है । अतः व्याधि, दुर्घटना तथा देव- मनुष्य-तिर्यंचकृत उपसर्ग के समय समाधिभाव कैसे रखा जाए? इसे विविध शास्त्रीय उदाहरणों द्वारा प्रस्तुत किया गया है, ताकि आकस्मिक या संलेखनापूर्वक, उभय-समाधिमरण साधक इन सव तथ्यों पर चिन्तन-मनन करके समाधिमरण को मानव-जीवन का अलभ्य लाभ और विजय समझकर अपना सके, मरण से बिलकुल डरे नहीं, हिचकिचाए नहीं ।
संलेखना - संथारा : मोक्षयात्रा में प्रबल सहायक
जीवनकला के समान मृत्युकला भी महत्त्वपूर्ण है। जीवन जीना यदि अध्ययनकाल है तो मृत्यु परीक्षाकाल है। जिस श्रमण या श्रमणोपासक ने अपने जीवन में श्रमणव्रत या श्रमणोपासकव्रत की साधना की है, तीन मनोरथों का चिन्तन-मनन- रटन करके उन्हें आत्मसात् किया है, वे मृत्युकाल में समाधिमरण अंगभूत संलेखनाव्रत और तदुत्तर संथारा (भक्त - प्रत्याख्यान) की साधना से कभी घबराते नहीं । अवसर आने पर वे स्वेच्छा से, उद्देश्य और विधिपूर्वक इस समाधिमरण - साधना को स्वीकार करते हैं।
यद्यपि आत्महत्या आदि से होने वाला मरण भी स्वेच्छामरण है; परन्तु संलेखना - संथारा से स्वेच्छापूर्वक होने वाले समाधिमरण में और आत्महत्यादि से होने वाले स्वेच्छामरण में दिन और रात का अन्तर है। आत्महत्या आदि से स्वेच्छामरण व्यक्ति स्वीकारता है- सांसारिक दुःखों, रोगादि की अतिपीड़ा के अतित्रास से घबराकर असहिष्णुता, मानसिक दुर्बलता, अपकीर्तिभय, उद्विग्नता आदि आवेशयुक्त भाव से या किसी आघात से घबराकर । ऐसी दुःसह परिस्थिति में वह कपायभाव के अतिरेक से, चित्त की उन्माद दशा में विविध प्रकार से जीवन का अन्त लाता है, किन्तु स्वेच्छापूर्वक पूर्वोक्त समाधिमरण के स्वीकार में पूर्वोक्त किसी प्रकार का आवेशयुक्तभाव या कषायभाव तथा अविवेकपूर्ण कृत्य नहीं होता । वहाँ अपने सभी स्वजन - परिजन या गुरुजनों की साक्षी से बहुत ही शान्तभाव से सबसे क्षमायाचना करके विधियुक्त संलेखना करके या कभी सागारी या अनागारी संथारा स्वीकार करके, संवेग, त्याग, वैराग्य की उत्कट आत्मभावना से समाधिपूर्वक पंचविध अतिचारों से विरत होकर किया जाता है। आत्महत्या द्वारा मरण जन्म-मरण के दुःखों का अन्त नहीं आता, जबकि संलेखना - संथारा द्वारा मृत्यु का समाधिपूर्वक वरण करने से कपायों और शरीर को कृश किया जाता है, शरीर और शरीर-सम्बद्ध पर-पदार्थों के प्रति मोह दूर किया जाता है, एकमात्र शुद्ध आत्मा-परमात्मा के स्वरूप में स्थिर होने का अभ्यास किया जाता है, अठारह प्रकार के पापस्थानों का, चतुर्विध आहार का त्याग करके समस्त जीवों से क्षमापना की जाती है। फलतः इस प्रकार के पण्डितमरण से जन्म-जन्मान्तर के संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं, जन्म-मरणरूप संसार अत्यन्त कम हो जाता है अथवा उसका अन्त आ जाता है।
संथारे की पूर्व तैयारी के लिए पहले काया और कपाय दोनों की संलेखना की जाती है, जो शरीर और सम्बद्ध पदार्थों से अहंत्व - ममत्व दूर करने, कषायभावों पर विजय प्राप्त करने की दीर्घकालिक साधन है, तत्पश्चात् अपनी योग्यता, क्षमता, मनःस्थिति, उत्साह आदि को जाँच-परखकर आमरणान्त संथा । (भक्त-प्रत्याख्यानरूप अनशनव्रत ) ग्रहण किया जाता है। अतः संलेखना कारण है, संथारा उसका कार्य है। आचारांगसूत्र में इस यावज्जीव समाधिमरण की तैयारी के रूप में आहारविमोक्ष, कपायविमोक्ष, वैयावृत्य-प्रकल्प, शरीरविमोक्ष, अनाचरणीयविमोक्ष, आरम्भ-समारम्भविमोक्ष, असम्यक् आचारविमोक्ष, वाणीविमोक्ष, वस्त्रविमोक्ष, अग्निसेवनविमोक्ष, आस्वादविमोक्ष, इन्द्रिय-विषयविमोक्ष, समूहविमोक्ष, भयादिविमोक्ष इत्यादि विमोक्षों (प्रत्याख्यानों) का स्पष्ट प्रतिपादन है। संलेखना भी कालावधि की अपेक्षा जघन्या, मध्यमा और उत्कृष्टा तीन प्रकार की है, उनकी विधि का भी यहाँ प्रतिपादन किया गया है। संथारा संलेखनापूर्वक या संलेखनारहित दोनों प्रकार से होता है, किन्तु इन दोनों को कब, कैसी शारीरिक परिस्थिति-मनः स्थिति में ग्रहण करना चाहिए. जैनागमों में इसका विशद निरूपण है। संलेखना - संथारा के तीन प्रकार हैं-भक्त-प्रत्याख्यान. इंगिनीमरण और पाइपोपगमन, ये तीनों ही यावज्जीव अनशन हैं। इनकी विधि में थोड़ा-थोड़ा अन्तर है। कभी-कभी संलेखना किये बिना ही तत्काल सागारी संथारे का सुदर्शन श्रमणोपासक की तरह निर्णय लेना पड़ता है और रात्रि को लिये जाने वाला सागारी संथारा
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