SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * १०१ * सम्बद्ध सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों की अनित्यता, क्षणभंगुरता और नाशवत्ता का ज्ञान-भान हृदयंगम हो जाता है और जो प्रतिक्षण जागरूक रहकर अपने जीवन को तथा अपने योगों को कपायों से बचाकर मत्प्रवृत्तियों में लगाए, अप्रमत्त रहकर सम्यग्ज्ञानादि-चतुष्टयरूप मोक्षमार्ग में प्रवृत्त करे, संवर-निर्जरा धर्म को अर्जित करने का प्रयत्न करे तो उसे मृत्यु का लोई भय नहीं होता। मृत्यु को वह हँसते-हँसते आलिंगन करता है। मृत्यु की अनिश्चितता है, इसीलिए जीवन में जागृति, सावधानी, कर्ममल क्षय करके शुद्ध बनाने की तीव्रता और आराधक बनने हेतु समाधि-संलेखना-आलोचनादि करने की उत्सुकता बनी रहेगी। समाधिपूर्वक मरण होने से आराधक बनकर साधक जन्म-मरणों को अत्यन्त कम कर सकता है। अतः सम्यग्दृष्टि एवं मुमुक्षुसाधक के लिए शरीर और कपाय की संलेखना करके समाधिमरण प्राप्त करना दुःखदायक, भयोत्पादक या हानिकारक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक विकास एवं आत्म-शुद्धि या आत्म-स्वरूपावस्थानरूप मोक्ष की दृष्टि से लाभदायक ही है। वैसे भी समाधिपूर्वक मरण से व्यक्ति कर्म के कारावास से मुक्त होता है, अतः ऐसी सफल मृत्यु से डर कैसा? मरण दो प्रकार के हैं-सकाममरण और अकाममरण। स्वेच्छा से समाधि और शान्तिपूर्वक मरण सकाममरण, और अकाममरण है-अनिच्छा से आर्त्त-रौद्रध्यान करते हुए, चिन्ता, उद्विग्नता और असमाधिपूर्वक मरण। इसलिए इन्हें ही क्रमशः समाधिमरण और असमाधिमरण या पण्डितमरण और बालमरण कहा जाता है। जो व्यक्ति नास्तिक हैं, क्रूर हैं. हिंसादि पापकर्मरत हैं, कामसुखों में ग्रस्त एवं मोहमूढ़ हैं, अन्तिम समय में भी जो शोकाकुल और आर्तध्यानरत होकर शरीर छोड़ते हैं, उनकी अविवेक और असमाधिपूर्वक मृत्यु बालमरण है। वे अपने दोनों लोक विगाड़ लेते हैं, भविष्य में उन्हें कई जन्मों तक बोधि प्राप्त नहीं होती। वलय, वशार्त, अन्तःशल्य. तद्भव, गिरिपतन, तरुपतन, जलप्रवेश, अग्निप्रेवश, • विषभक्षण, शास्त्राघात, वैहानस और गृद्धपृष्ठ, ये १२ प्रकार के बालमरण हैं। जो धर्माचरण करता है, सुव्रती हैं, संयम और सत्कर्म का आचरण करता है, उसका वह मरण सकाम या पण्डितमरण है। वह देहासक्ति से रहित होकर मृत्युभय से भयभीत नहीं होता। अन्तिम समय में अन्तर में जाग्रत रहकर आत्मा की कर्मनिर्जरा द्वारा अनन्त गुनी शुद्धि कर लेता है। वस्तुतः समाधिमरण का साधक मरण को सुधार लेता है. बशर्ते कि उसका जीवन व्रतनियमादि धर्माचरण या तपश्चरण से यक्त रहा हो और यह भी निश्चित है कि एक भव का मरण सुधारता है तो अनेक भव सुधर जाते हैं, बोधिलाभ और साधना में सहायक संयोग मिल जाते हैं और एक भव विगड़ गया तो अनन्त नहीं तो अनेकानेक भव बिगड़ जाते हैं। पण्डितमरण मरण सुधारने की कला है। संलेखनापूर्वक मरण को मानव-जीवन का सार कहा है। पण्डितमरण का सच्चा आयधक वह है, जिसकी श्रद्धा-प्रतीति, रुचि और आत्मा, परमात्मा और आत्म-गुणों के विकास में हो। सम्यग्ज्ञान, संयम, तप, ब्रह्मचर्य आदि का प्राणप्रण से पालन करके कर्मक्षय या कर्मसंवर करता हो, केवलिप्राप्त धर्म की आराधना अप्रमत्तभाव से करता हो, भावसत्य, करणसत्य और योगसत्य से ओतप्रोत हो त्रिविधशल्य, नवविध निदान से रहित हो, मृत्यु आने पर उसका सहर्ष स्वागत करता हो तथा शान्ति, धैर्य, समता और समाधिपूर्वक देहत्याग करता हो। समाधिमरण की सफलता के लिए कर्मविज्ञान ने तीस भावनाएँ-अनुप्रेक्षाएँ भी दी हैं तथा मृत्यु के समय समाधि रखने हेतु तथा समाधिभाव का चिन्तन, मनन एवं भवना हेतु मृत्यु-महोत्सव से सम्बन्धित १८ भावनाएँ भी अंकित की हैं। समाधिमरण प्राप्त होने में तीन बड़ी बधाएँ हैं-मूर्छा. अजागृति और कुसंस्कार। समाधिमरण-साधक की प्रवल कसौटी मृत्यु है, उस समय शरीर के प्रति आत्म-बुद्धि जरा भी न रहे, समता और शान्ति तथा आत्म-जागृति सुरक्षित रहे तो वह पीक्षा में सफल है। वस्तुतः आराधना और विराधना की प्रवल कसौटी भी समाधि-असमाधिमरण है। कई सथक जीवन के पूर्वार्द्ध में व्रत-नियम-तप-संयम आदि धर्माचरण में संलग्न रहते हैं, समाधिमरण की गवना भी रखते हैं, किन्तु जीवन के उत्तगर्द्ध में वे ही लोग मृत्यु के निकट आने पर धर्माचरण को तथा देवगुरु-धर्म के प्रति एवं आत्मा के प्रति श्रद्धा विलकुल छोड़कर समाधिमरण की वाजी हार जाते हैं. इसके विपरीत कई साधक जीवन के पूर्वार्द्ध में अज्ञ, पामर एवं धर्माचरण में पिछड़े दिखाई देते हैं, किन्तु उतरार्द्ध वे सँभलकर आलोचनादि द्वारा आत्म-शुद्धि कर लेते हैं तथा कपाय तथा शरीरमोह को दूर कर 'समभावपूर्वक शरीर को संलेखना-संथारा की तपाग्नि में झोंककर समाधिमरण प्राप्त करके बाजी सुधार लेते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy