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________________ * १०० * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार। ज्ञान आदि प्रत्येक के साथ लगा हुआ ‘आचार' शब्द ही यह सूचित करता है कि ज्ञान आदि पाँचों केवल शास्त्रों द्वारा जान लेने, घोंट लेने, इन पर भाषण कर देने, लेख लिख देने, इनका केवल प्रचार-प्रसार करके प्रसिद्धि पा लेने की वस्तु नहीं, अपितु आचरण की वस्तु है। ज्ञान आदि पाँचों जीवन में सम्यक् रूप से विधिपूर्वक आचरित होने पर ही वे मोक्ष-प्राप्ति में सहायक हो सकते हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र या तप तभी कृतकार्य हो सकते हैं, मोक्ष-प्राप्ति शीघ्र करा सकते हैं, जब वे वीर्याचार के अंगभूत उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ-पराक्रम से युक्त हों। तभी आत्मा के अधिकांशरूप में सुषुप्त, कुण्ठित और आवृत अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त अव्याबाध-सुख (आनन्द) और अनन्त आत्मिक-शक्ति (बलवीय), निजी गुण जाग्रत, सक्रिय और अनावृत हो सकेंगे। यदि इन आचारों का पालन करते समय मुमुक्षुसाधक सतर्क, जाग्रत, सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष लक्ष्य के प्रति सचेष्ट तथा संवर-निर्जरारूप आत्म-धर्म के प्रति अप्रमत्त नहीं रहेगा तो ज्ञानाचार के साथ अज्ञान, संशय, विपर्याय, भ्रान्ति, अनध्यवसाय, अविवेक प्रविष्ट हो सकते हैं. दर्शनाचार के साथ मिथ्यात्व. अन्ध-विश्वास. हठाग्रह. पर्वाग्रह. करूदि. शंका. कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़ता, मूढ़दृष्टि, मिथ्यादृष्टि आदि घुस सकते हैं, चारित्राचार के साथ कषाय, नोकपाय, राग, द्वेष, मोह आदि के कालुष्य प्रविष्ट हो सकते हैं, तपाचार के साथ इह-पारलौकिक फलाकांक्षा, निदान, भौतिक या सांसारिक इच्छाओं, वासनाओं, महत्त्वाकांक्षाओं, पद-प्रतिष्ठा-प्रशंसा-लिप्सा आदि मलिनताएँ घुस सकती हैं और वीर्याचार के साथ आत्म-विश्वास, उत्साह और साहस में कमी. दुर्बलता, बहम आदि दोषों का प्रवेश हो सकता है। ऐसी स्थिति में ये पाँचों आचार दोपदूपित होकर अनाचार में परिणत हो सकते हैं। फिर वे स्व-स्वरूप में अवस्थान के बदले विभावों अथवा परभावों में ही, क्रियाकाण्डों में, या अहंकारादि कषायों में ही चक्कर काटते रहेंगे। यानी फिर ये मोक्षलाभ के बदले मोहलाभ ही प्राप्त कर पायेंगे। कर्मविज्ञान ने इस विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला है। पंच-आचार को विपरीत रूप में, अविधिपूर्वक क्रियान्वित करने पर भी आचार के नाम पर वह पुरुषार्थ अनाचार में ही फलित होगा। अतः दशवैकालिकसूत्र में चेतावनी दी है कि पंचविध आचार का पालन केवल आर्हत्वपद-प्राप्ति यानी वीतरागता के हेतु से करना चाहिए। अतः सम्यक् आदर्श आचार में यथाशक्ति पराक्रम करना चाहिए, ताकि जिन सम्यग्ज्ञानादि को जीवन में आचरित (क्रियान्वित) करने से पूर्वबद्ध कर्मपरम्पराएँ नष्ट हों, नये आते हुए कर्मों का निरोध हो; क्योंकि आचारहीन धर्ममर्यादारहित व्यक्ति इस लोक में भी निन्दित होता है, परलोक में भी दुर्गति-दुःस्थिति होती है। जो विचार या ज्ञान, जो सम्यग्दृष्टि या श्रद्धा, जो चारित्र या बाह्यान्तर तप आचरण में नहीं है, वह बाँझ है, तोतारटन है। इसलिए आचार ही प्रथम धर्म है। केवल ज्ञानाचार या दर्शनाचार के नाम पर, केवल भक्तिवाद अथवा चारित्राचार के नाम पर, केवल सम्प्रदाय परम्परागत क्रियाकाण्ड ही पर्याप्त नहीं। पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति के लिए ये पाँचों ही आचार जीवन में क्रियान्वित होने अनिवार्य हैं। कर्मविज्ञान ने पाँचों आचारों को क्रियान्वित करने हेतु उनके प्रयोजन तथा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, तपाचार, चारित्राचार के क्रमशः ८, ८, १२ और ८ प्रकार तथा निश्चय-व्यवहार दोनों दृष्टियों से इनके लक्षण तथा कार्य का विशद निरूपण भी किया है। मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला उपकारी : समाधिमरण जीवन और मरण दोनों प्रत्येक संसारी जीव के साथ लगे हुए हैं। जीवन के साथ-साथ मृत्यु भी = प्रतिक्षण आवीचिमरण भी चल रही है, परन्तु अधिकांश जीव जीवन को जितना चाहते हैं, जितनी गहराई से जीवन-दर्शन को समझते हैं, उतना क्या, उससे शतांश भी वे मृत्यु को नहीं चाहते, न ही मृत्यु के दर्शन को समझते हैं। भगवान महावीर ने जीवन के साथ-साथ मृत्यु की कला भी सिखाई है। उन्होंने समाधिमरण और सकाममरण (पण्डितमरण) का अनुभूत तथ्यों से परिपूर्ण दर्शन जगत् के समक्ष प्रस्तुत किया। परन्तु आज के अधिकांश मनुष्यों का. कतिपय साधकों का भी, जितना ध्यान जीवन को सुखद और सुविधापूर्ण बनाने का है, उसका शतांश भी मृत्यु का नहीं, जीवन ही उन्हें प्रिय लगता है, मरण अप्रिय और दुःखद। परन्तु मृत्यु की बात को टालने या भूलने से मृत्यु टल नहीं सकती। उसका आगमन निश्चित है। जीवन के प्रति आसक्ति, मोह और भ्रान्ति ही मृत्यु के प्रति भय का कारण है। यथार्थ में देखा जाए तो मृत्यु शान्तिदात्री, दयालु, नव जीवनदायिनी और महानिद्रा है। उससे डर कैसा? जिसे शरीर और शरीर से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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