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________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ९९ * (I) कई तो उत्कृष्ट अच्युतकल्प देवलोक में उत्पन्न होकर, (II) श्रावकव्रती अम्बड़ परिव्राजक जैसे कई ब्रह्मलोक देवलोक में उत्पन्न होकर अगले भव में महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सर्वविरति चारित्र-पालन करके मोक्ष प्राप्त करेंगे, (III) उपासकदशांग वर्णित संयमासंयमी श्रमणोपासक साधर्म देवलोक में उत्पन्न अगले भव में महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर उत्तम करणी करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होंगे, (IV) श्रमणोपासक जीर्ण सेठ दान की उत्कृष्ट भावना से १२वें देवलोक में जाकर . (V) तथा आहार-शरीरादि में दृढ़ संयमी ब्रह्मचर्यनिष्ठ जुट्ठल श्रावक ईशान देवलोक में उत्पन्न होकर अगले भव में महाविदेह क्षेत्र से मोक्ष जायेंगे, (VI) प्रदेशी राजा भी समाधिमरण प्राप्त करके सौधर्म देवलोक में जन्म लेकर अगले भव में महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा। (७) संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रियों में (I) नन्दन मणिहार का जीव वावड़ी में आसक्त होकर मेंढक बना. किन्त जातिस्मरणज्ञानवल से पूर्वजन्म जानकर श्रावक व्रत अंगीकार करके समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त कर प्रथम देवलोक में दर्दुर देव बना, वहाँ से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र से मोक्ष प्राप्त करेगा, (II) इसी प्रकार भूतानन्द और उदायी गजराज दोनों असुरकुमार देवभव से च्यवकर कोणिक के पट्टहस्ती बने। वहाँ से मरकर प्रथम नरक में और वहाँ से अन्तररहित निकलकर दोनों महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य-भव ग्रहण करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होंगे। (८) बाहुवली मुनि को मानकपाय छूटते ही केवलज्ञान प्राप्त हुआ और फिर उनका निश्चित ही मोक्ष होना था। (९) सात लव कम आयु वाले शालिभद्र मुनि आदि को विशुद्ध अध्यवसायवश अनुत्तरविमानवासी देव वनना पड़ा, वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर वे सिद्ध-वुद्ध-मुक्त होंगे। (१०) तीन मनोरथों. द्वारा मन-वचन-काया को भावित करने वाले श्रमणनिर्ग्रन्थ और श्रमणोपासक तथा अम्लानभाव से आचार्य आदि दशविध उत्तम पात्रों की वैयावत्य करता हआ श्रमणवर्ग महानिर्जरा और महापर्यवसान करता है, यानी या तो असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा करके उत्तम देवलोक में जाता है या जन्म-मरण का अन्त करके मोक्ष में जाता है। (११) इसी प्रकार अन्नग्लायक श्रमणनिर्ग्रन्थ, प्रासुकभोजी (मृतादी) श्रमणनिम्रन्थ, एषणीय आहारादिभोजी श्रमणनिर्ग्रन्थ भी संसार-सागर पारगामी हो जाते हैं। (१२) जिनका कांक्षामोहनीय कर्म दोप क्षीण हो जाता है, वे श्रमणनिर्ग्रन्थ भी अन्तकृत् या अन्तिमशरीरी हो जाते हैं। (१३) ज्ञान-दर्शन-चारित्र की उत्कृष्ट आराधना करने वाले श्रमणनिर्ग्रन्थ जघन्य तीसरे भव में, मध्यम दूसरे भव में और उत्कृष्टतः उसी भव में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। सात या आठ भवों का अतिक्रमण तो कथमपि नहीं करते। (१४) कर्तृत्व एवं दायित्व वहन करने वाले कतिपय आचार्य और उपाध्याय उसी भव में और कई देवलोक में जाकर दूसरे भव में मोक्ष जाते हैं, किन्तु तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते। (१५) उत्तराध्ययनसूत्र संवेग-निर्वेदादि ७३ बोलों में से ४९ बालों द्वारा (यानी ४९ गुणों द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करके आयुष्य पूर्ण होने पर निश्चित ही मोक्ष में जाते हैं। (१६) औपपातिकसूत्रोक्त अनारम्भी, अपरिग्रही यावत् अठारह पापस्थानों से पूर्णतः विरत श्रमणनिर्ग्रन्थ, जिन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है वे आयुष्य पूर्ण होने के बाद सर्वकर्ममुक्त हो जाते हैं, जिन्हें केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता. वे अन्तिम समय में भक्त-प्रत्याख्यानरूप अनशन करके अपने लक्ष्य को सिद्ध करते हैं, केवली होकर सिद्ध-परमात्मा बन जाते हैं। (१७) अनिदानता, दृष्टि-सम्पन्नता और योगवाहिता (अथवा समाधिस्थायिता) इन तीन गुणों से सम्पन्न अनगार संसारारण्य से पार हो जाते हैं। (१८) एकरात्रिक भिक्षुप्रतिमाप्रतिपन्न अनगार को अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान इन तीनों में से केवलज्ञान प्राप्त हो जाए तो उसका मोक्ष निश्चित है। (१९) (I) कापोतलेश्यी कतिपय पृथ्वीकायिक, अकायिक और वनस्पतिकायिक जीव मरकर मनुष्य-भव पाकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं, (II) इसी प्रकार कुछ विशिष्टगुणयुक्त शालवृक्ष, शालयष्टिका और उदुम्बरयष्टिका भी भविष्य में मानव-भव पाकर मोक्षगामी होगी। (२०) भगवतीसूत्रोक्त दस प्रशस्त एवं . अन्तकर बातों के सतत अभ्यास से श्रमणनिर्ग्रन्थ सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो सकता है। इस प्रकार कर्मविज्ञान ने विविध पहलुओं से अवश्य मोक्ष प्राप्त करने वाले महान् आत्माओं का निरूपण किया है। .. मोक्षसिद्धि के साधन : पंचविध आचार - जैन-कर्मविज्ञान में मोक्ष-प्राप्ति के लिए विशिष्ट साधन पंचविध आचार को माना गया है, जो मुमुक्षु के आध्यात्मिक जीवन का निर्माण करते हैं। वीतरागता की भूमिका में स्थिर करते हैं। वे हैं-ज्ञानाचार, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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