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________________ * ९८ * कर्म - सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * शीघ्र मोक्ष प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के लिए आत्मार्थी और मुमुक्षुसाधकों के ज्ञानी महापुरुषों ने मुख्यतया १९ बोलों का चयन किया हैं, जिन्हें कर्मविज्ञान ने 'मोक्षमार्ग के चार अंगों में वर्गीकृत करके उनका विश्लेषण किया है। सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में एक बोल है-मोक्ष की इच्छा रखना। 'सम्यग्ज्ञान' से सम्बन्धित तीन बोल हैं(१) गुरुमुख से सूत्र - सिद्धान्त सुनना-पढ़ना, (२) (मोक्ष से सम्बद्ध) सम्यग्ज्ञान सीखना सिखाना तथा स्वयं स्वाध्याय में लीन होना, दूसरों को पढ़ाना और ( ३ ) पिछली रात्रि में आत्म-सम्प्रेक्षणपूर्वक धर्मजागरण करना। ‘सम्यक्चारित्र' से सम्बन्धित आठ बोल हैं - ( १ ) सिद्धान्तानुसार सम्यक् प्रवृत्ति करना, (२) गृहीत व्रतों का शुद्ध (निरतिचार) पालन करना. (३) संयम का दृढ़ता से पालन करना, (४) शुद्ध मन से शील (ब्रह्मचर्य) का पालन करना, (५) शक्ति होते हुए भी क्षमा करना. (६) कपायों पर विजय प्राप्त करना, (७) षड्जीवनिकाय की रक्षा करना, और (८) सुपात्रदान तथा अभयदान देना । सम्यकुतप से सम्बन्धि सात बोल हैं–(१) बाह्य-आभ्यन्तर उग्रतप (इह-पारलौकिक फलाकांक्षा और निदान से रहित होकर) करना, (२) इन्द्रियों को अन्तर्मुखी करके वश में (प्रतिसंलीनता तप) करना, (३) निष्काम निःस्वार्थ भाव से आत्म-वैयावृत्य समझकर) वैयावृत्य (सेवा-शुश्रूषा) करना, (४) उत्तम ध्यान ( तप) करना, (५) यथासमय सामायिक (प्रतिक्रमण) आदि आवश्यक करना, (६) लगे हुए दीपों की शीघ्र आलोचनादि (प्रायश्चित्ततपं) करके शुद्ध होना, और (७) अन्तिम समय में संलेखना - संथारापूर्वक समाधिमरण प्राप्त करना । सैद्धान्तिक दृष्टि से इच्छा लोभकपाय और राग का कारण होने से त्याज्य है, परन्तु मोक्ष प्राप्ति के सन्दर्भ में यहाँ लौकिक या भौतिक इच्छाएँ या लोकैपणाएँ न होकर मोक्ष की इच्छा लोकांत्तर है, जो संवेग के अन्तर्गत है। इसलिए निश्चयदृष्टि से त्याज्य होते हुए भी नीचे के गुणस्थानों की भूमिका में व्यवहारदृष्टि से कथंचित् उपादेय है। दूसरी बात - मोक्ष की इच्छा अन्य सांसारिक इच्छाओं का निरोध या शमनरूप होने से शुभ योगसंबर में भी समाविष्ट हो जाती है। फिर सांसारिक इच्छाएँ वहिर्मुखी होती हैं, जबकि मोक्ष की इच्छा अन्तर्मुखी होती है। मोक्ष की इच्छा की आभ्यन्तर हेतु हैं-संसारानुप्रेक्षा, एकत्वानुप्रेक्षा, अशरणा और शरीरानुप्रेक्षा तथा पट्स्थान- चिन्तन आदि। आगे सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यकृतप के बोल कैसे शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति में सहायक हो सकते हैं? इस सम्बन्ध में कर्मविज्ञान ने विस्तार से विश्लेषण किया है। मोक्ष अवश्यम्भावी : किसको, कब और कैसे-कैसे ? निश्चयनय की दृष्टि से समस्त जीवों की शुद्ध आत्माओं में परमात्म-शक्ति- माक्षगमन-शक्ति विद्यमान है, किन्तु उसकी अभिव्यक्ति सबमें नहीं हो पाती। जैसे- एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव मिथ्यात्वी होने से उनकी कर्मक्षय की शक्ति सुपुप्त, अनभिव्यक्त, कुण्ठित और अनावृत रहती है। पंचेन्द्रियों में भी नारक, तिर्यंच और देव की चेतना अधिक विकसित हुए भी वे कर्मों को सर्वथा अनावृत नहीं कर पाते। सर्वाधिक बुद्धिमान् और विकसित चेतना वाला होते हुए भी सभी मानव मोक्ष प्राप्ति के योग्य नहीं हो पाते; तीव्र मिथ्यात्वी, अभव्य आदि को मोहग्रस्त होने के कारण मोक्ष के प्रति जरा भी रुचि, श्रद्धा या उत्साह नहीं है तथा मोक्ष का सस्ता नुस्खा खोजने वाले मनुष्यों को सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त नहीं हो पाता। जैनागमों और जैनग्रन्थों में किन-किन मनुष्यों को कितने भवों में अवश्य ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है ? इसका यत्र-तत्र उल्लेख किया गया है तथा अनेकान्त दृष्टि से विभिन्न पहलुओं और दृष्टियों से मोक्ष की अवश्यम्भाविता के तथ्य कर्मविज्ञान ने प्रस्तुत किये हैं- (१) मुक्ति पाने के योग्य सभी भवसिद्धिक एक न एक दिन अवश्य ही सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होंगे। (२) सम्यक्त्व आदि के द्वारा जिन्होंने संसार परित (परिमित) कर लिया है. वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल में और उत्कृष्ट अनन्त काल - कुछ कम अर्द्धपुद्गल परिवर्तनकाल के बाद अवश्य मोक्ष प्राप्त करेंगे। (३) श्रवण, ज्ञान, विज्ञान प्रत्याख्यान आदि क्रम से अक्रिया आदि का अन्त में निर्वाण फल बताया है। या श्रवणादि क्रिया करने वाले को परम्परा से अवश्य ही मोक्ष प्राप्त होता है। (४) अटारह पापस्थानों से विरत हुए जीव कर्मों से हल्के होकर संसार परिणित करके एक दिन अवश्य ही संसाराटवी को पार कर लेते हैं, यानी मोक्ष पा लेते हैं। (५) आराधक सरागसंयमी अनुत्तरीपपातिक देवलोक के भव के बाद अवश्य ही मुक्त हो जाते हैं। (६) औपपातिकसूत्र वर्णित आराधक संयमासंयमी श्रमणोपासक वर्ग में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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