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________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ९७ * मामर्थ्य है। जो लोग यह कहते हैं कि वीतराग परमात्मा तो जगत् से विमुख, उदासीन, विरक्त हैं, वे भक्ति करने पर कुछ देते-लेते नहीं, न ही संसार के नाना दुःखों से मुक्त करते हैं. ऐसे परमात्मा की भक्ति क्यों की जाए? वे परमात्मा के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं। सभी जीव अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों से सुख-दुःख पाते हैं, अतः परमात्मा या दूसरा कोई किसी को सुख-दुःखादि या कोई वस्तु दे-ले नहीं सकता, उसे प्राप्त करना जीव के अपने हाथ में है। इसलिए परमात्मा की भक्ति तो उनके गुणों का स्मरण करके अपने में उन सद्गुणों को लाने और कर्मों से मुक्त होने के लिए है। भक्ति के वास्तविक स्वरूप का कर्मविज्ञान ने विविध भक्तिमार्गी आचार्यों के मत देकर विश्लेषण किया है। साथ ही परमात्मा की अनन्य भक्ति और नकली भक्ति का अन्तर भी स्पष्ट रूप से समझाया है। परमात्मा की स्तुति, स्तव, उपासना आदि सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय का बोधिलाभ होता है, जिससे वह जन्म-मरणादि का अन्त करके या तो सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष प्राप्त कर लेता है. या आराधक बनकर वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है। आज्ञाराधनारूपा अनन्य भक्ति के रूप में गौतम स्वामी तथा वीतरागता के प्रति श्रद्धारूपा अनन्य भक्ति के रूप में सुलसा श्राविका ज्वलन्त उदाहरण हैं। परवर्ती आचार्यों ने प्रशस्तरागरूपा भेद-भक्ति को इसलिए स्थान दिया है कि अशुद्ध या अशुभ राग की ओर बढ़ती हुई जनता उससे हटकर कम से कम देव, गुरु, धर्म के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखकर प्रशस्त (शुभ) राग में रहे. कदाचित् शुभ योगसंवर प्राप्त करके आराधक बन सके। अन्त में भेद-भक्ति और अभेद-भक्ति का रहस्य, महत्त्व और उपादेयत्व बताकर सर्वकर्ममुक्ति के लिए भेद-भक्ति से ऊपर उठकर अभेद-भक्ति को ही मोक्ष-प्राप्ति का प्रमुख कारण बताया गया है। शीघ्र मोक्ष प्राप्ति के पुरुषार्थ की सफलता भारतीय संस्कृति में चार प्रकार के पुरुषार्थ वताए गए हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। अर्थ और काम-पुरुषार्थ भी अपने-अपने आत्म-धर्म की मर्यादा में करने का विधान किया गया है। धर्म भी साम्प्रदायिक, पांथिक या लौकिक नहीं, पर लोकोत्तर संवर-निर्जरारूप या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप अभीष्ट है जोकि आत्म-धर्म से सम्बद्ध है। अतः साधुवर्ग और श्रावकवर्ग के लिए संयमी जीवन-यात्रा के लिए वस्त्र-पात्र-आहार-शास्त्रादि अर्थ और पंचेन्द्रिय तथा मन, बुद्धि, चित्त आदि अन्तःकरण के विभिन्न : विषयों का उपभोग (काम) या उपयोग प्रत्येक चर्या में करना पड़ता है, परन्तु करते हैं वे संवर-निर्जरारूप धर्म की सीमा में ही। तभी वे मोक्ष-पुरुषार्थ में अग्रसर हो सकते हैं। क्योंकि दोनों वर्गों का अन्तिम लक्ष्य सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त करने का है। धर्मादि तीनों पुरुषार्थ भी मोक्षलक्ष्यी-शुद्ध आत्म-लक्ष्यी होंगे, तभी वे मोक्ष-पुरुष साध्य को प्राप्त कर सकेंगे, क्योंकि शुद्ध धर्म का पुरुषार्थ सर्वपुरुषार्थों का मूल कारण है। अतः मोक्ष-पुरुषार्थी को शीघ्र सफलता प्राप्त करने के लिए विशुद्ध ज्ञान-दर्शनलक्षण आत्मा (जीव) का स्वभाव में अवस्थान करना ही निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ करना है। इस दृष्टि से अपने मन, बुद्धि, चित्त और हृदय में प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति करते समय मोक्ष को स्मृति-पटल पर रखता है, मोक्ष के भावों से निरन्तर उसकी आत्मा भावित रहती है। जैसे कि मुमुक्षु साधुवर्ग संयम और तप से जो संवर, निर्जरा और. मोक्ष के अंग हैं, सतत अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विहरण करता है। साथ ही आत्म-भावों और विभावों का सम्यक विवेक करके परभावों का केवल ज्ञाता-द्रष्टा रहने तथा विभावों से वचने का भी संवररूप पुरुषार्थ करता रहता है। उसके लिए सतत अप्रमत्त, जागरूक और विवेकी रहना परम आवश्यक है। मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता के लिए मोक्ष-पुरुषार्थी को निम्नोक्त १५ दुर्लभ बातों का ध्यान रखना आवश्यक है-(१) त्रसत्व, (२) पंचेन्द्रियत्व, (३) मनुष्यत्व, (४) आर्यदेश. (५) उत्तम कुल, (६) उत्तम जाति, (७) पंचेन्द्रिय-समृद्धि. (८) बल (दशविध प्राणवल या पराक्रम), (९) जीवित (दीर्घायप्य). (90) विज्ञान (नी तत्त्वों का ज्ञान). (११) सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन), (१२) शील-सम्प्राप्ति (सम्यक्चारित्र-प्राप्ति), (१३) क्षायिकभाव, (१४) केवलज्ञान, और (१५) सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष के लिए अष्टविध कर्मक्षय। शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के पुरुषार्थ के लिए सम्यग्दृष्टि-सम्यग्ज्ञानपूर्वक मोक्षानुरूप आचरण होना जरूरी है। मोक्ष हेत परुषार्थ करने में दो वाधक तत्त्व हैं-मानसिक द्वन्द्र और पर-पदार्थों में आसक्ति। इनके निराकरणार्थ चार साधक-तत्त्व हैं-दृढ़ निश्चय, लक्ष्य में स्थिरता, पर-पदार्थों से विरक्ति और धैर्यपूर्वक अभ्यास। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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