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________________ * ९६ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * फलितार्थों का सम्यग्ज्ञान और बोधं नहीं है, वे मोक्षयात्रा के अयोग्य हैं, वे भावनिर्वाणरूप समाधि से दूर हैं। कतिपय दार्शनिक धर्म और मोक्ष के वास्तविक बोध से रहित हैं, वे कच्चे (सचित्त) पानी, सचित्त बीज और औद्देशिक आहार-सेवन, जो हिंसादियुक्त होने से कर्मबन्ध के कारण हैं, उन्हें कर्ममुक्तिरूप मोक्ष के कारण बताते हैं। वस्तुतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र (इसके अन्तर्गत सम्यक्तप) इन सबके एक-एक से सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त नहीं होता, वह होता है, इन तीनों या चारों के समायोग से ही। इनमें से एकान्ततः एक-एक से मोक्ष क्यों नहीं होता? इसका निराकरण विविध युक्तियों द्वारा कर्मविज्ञान ने किया है। तीनों या चारों का समन्वय तथा इनकी सम्यक्ता (यथार्थता) ही मोक्ष का सन्मार्ग है। मोक्ष-प्राप्ति के लिए चारित्र-शुद्धि आवश्यक है। सम्यक्चारित्र में सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन का समावेश हो ही जाता है और सम्यक्चारित्र के बिना कोरे ज्ञान या दर्शन से मोक्ष नहीं हो सकता। अतः चारित्र-शुद्धि के लिए सूत्रकृतांग में दस विवेकसूत्र दिये गए हैं। कर्मबन्ध और उससे युक्त होने का जिन्हें सम्यग्ज्ञान नहीं है, ऐसे मोक्षमार्ग से भ्रष्ट या विचलित करने वाले तथा मोक्ष के सस्ते नुस्खे बताने वाले कतिपय मतवादियों का भी पूर्वपक्ष प्रस्तुत करके उनका सयुक्तिक खण्डन किया गया है। निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग : क्या, क्यों और कैसे ? 'तत्त्वार्थसार' में मोक्षमार्ग के दो रूप बताये गये हैं-व्यवहारदृष्टि से मोक्षमार्ग और निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग। मुमुक्षुसाधक केवल व्यवहारदृष्टि में ही अटककर न रह जाये, व्यवहार के साथ वह मौलिक निश्चयदृष्टि को साध्य मानकर चले, तभी मोक्षपथ पर यथार्थरूप से चलकर पूर्वोक्त मोक्ष प्राप्त कर सकेगा। जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान्, उन पदार्थों का सम्यग्ज्ञान और इनके साथ-साथ उनमें से हेय तत्त्वों को छोड़कर उपादेय तत्त्वों का-यानी संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्वों का और इन तीनों के कारणभूत सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप आदि का आचरण करना व्यवहारदृष्टि से मोक्षमार्ग है। इस लक्षण पर सहसा प्रश्न उठता है कि विश्वास या श्रद्धान्, ज्ञान या विचार अथवा आचरण या आचार मूल में किसका और किसके लिए होना चाहिए? अध्यात्मशास्त्र का समाधान है, ये सब आत्मा के लिए ही हैं, जीवादि नौ तत्त्वों में आत्मा (जीव) ही प्रधान तत्त्व है, द्रव्यों में वही प्रधान द्रव्य है और पदार्थों में वही प्रमख पदार्थ है। उसी को मोक्ष प्राप्त करना है-बन्ध और आस्रव से वियुक्त (रहित) होना है, संवर और निर्जरा तत्त्व भी उसी के लिए है। अतः निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग है-अपनी आत्मा पर ही विश्वास करना. उसी को-उसी के वास्तविक स्वभाव-विभाव को, स्वरूप और विरूप को जानना-समझना और उसी आत्मा के स्वरूप, स्वभाव और स्व-गुणों में रमण करना-उसी के स्वभाव में अवस्थित होना। वर्तमान में अशुद्ध बनी हुई आत्मा को शुद्ध-निर्मल-कर्मकलंकरहित बनाने का पुरुषार्थ करना। निश्चयदृष्टि से यही सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानसम्यक्चारित्र और सम्यक्तपरूप मोक्षमार्ग है। अर्थात् आत्मा का ही ज्ञान, श्रद्धान् और स्वरूपानुकूल आचरण करना निश्चयदृष्टि-परमार्थदृष्टि से मोक्षमार्ग है। इसी लक्षण का समर्थन विभिन्न जैनग्रन्थों ने किया है। आत्मा को सर्वथा विस्मृत और उपेक्षित करके केवल दूसरे तत्त्वों, सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों या विभावों को जानने-मानने या सुधारने का प्रयत्न मोक्षमार्ग नहीं है। उन्हें परमात्मा का, उनके गुणों का, आत्मा के शद्ध स्वरूप का स्मरण, ज्ञान और भान कराने हेतु सरस. सरल उपाय परमात्म-भक्ति है। परमात्म-भक्ति में तन्मय होकर मनुष्य अपने दुःखों को भूल सकता है, कदाचित् पूर्वकृत कर्मोदयवश दुःख या कष्ट भोगना भी पड़े तो उनके समता-वीतरागता गुणों को याद करके समभाव से भोग सकता है, उसके स्वभाव में भी परिवर्तन हो सकता है। भक्ति से परमात्म-विमुख व्यक्ति परमात्म-सम्मुख हो सकता है। अपने शुद्ध आत्म-स्वरूप को भूले हुए मानव को प्रभु-भक्ति से शुद्ध आत्म-स्वरूप का भान हो जाता है। विनाशी को छोड़कर अविनाशी परमात्मा के प्रति प्रीति-भक्ति से भय, दुःख या क्लेश भी दूर हो जाते हैं। परमात्म-भक्ति के अमृत में मस्त व्यक्ति मीराबाई, आनन्दघन जी आदि की तरह अपनी आकांक्षाओं को भी भूल जाता है। वस्तुतः परमात्म-भक्ति में तन्मय होने वाले भक्त को आत्मवल, मनोवल तथा दशविध प्राणवल भी प्राप्त हो जाता है। उसमें निर्भयता, सहिष्णुता, आनन्द और अन्तःकरण में उल्लास भर जाता है। परमात्म-भक्त में सर्वस्व न्योछावर करने की तथा कष्टों को हँसते-हँसते सहन करने की शक्ति आ जाती है। उसमें सघन-आशावादिता और मुस्कानभरी प्रसन्नता आ जाती है। वस्तुतः भक्ति में जीवन-परिवर्तन का अपूर्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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