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* कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ९५ *
आधार (प्रतिष्ठान) कहते हैं। आत्मार्थी मनस्वी साधकों को अन्य सव भौतिक पदों को त्याज्य समझकर निर्वाणपद के साथ ही सन्धान करने तथा त्रिविधयोग से होने वाली समस्त प्रवृत्ति निर्वाण को लक्ष्य में रखकर करे। निर्वाणपद की विशेषता बताने हेतु इसे सत्य, अनुत्तर, कैवलिक, प्रतिपूर्ण, न्यायिक या नैयायिक, संशुद्ध, शल्यकर्तन, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, निर्माणमार्ग, निर्वाणमार्ग, अवितथ, असंदिग्ध तथा सर्वदुःखहीनमार्ग कहा गया है। अतः मुमुक्षुसाधकों को श्रद्धा-निष्ठापूर्वक इस मोक्षमार्ग पर गति-प्रगति करना अनिवार्य वताकर मोक्षमार्गी साधक के लिए १३ साधनासूत्र भी इस अध्ययन में बताये गए हैं। साथ ही यह भी चेतावनी दी गई है कि मोक्षयात्री को साधन और साध्य दोनों की शुद्धि तथा दोनों का द्रव्य और भाव तथा निश्चय और व्यवहारदृष्टि से सम्यग्ज्ञान तथा विचार होना अनिवार्य है। जिन्हें सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र-तप की यथार्थता का तथा निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग को अपनाना मुमुक्षु के लिए इसलिए आवश्यक है कि अन्ततोगत्वा मोक्ष आत्मा (जीव) के लिए है। जीव को ही स्वयं को पर-पदार्थों से या परभावों या विभावों से पृथक् जानना-मानना है, परभावों या विभावों पर श्रद्धा न करके जीव (आत्मा) पर ही श्रद्धा न करना है तथा आत्मा के ही शुद्ध स्वरूप-शुद्ध गणों में रमण करना है, परभावों-विभावों में नहीं। इन बातों को किसे जानना है ? जीव (आत्मा) को ही। अतः जो अपने आत्म-तत्त्व पर विश्वास नहीं करता, उसके स्वरूप का भी वोध (ज्ञान) नहीं करता और न ही उसके स्वरूप में अवस्थान करता है, वह मुमुक्षुसाधक केवल व्यावहारिक मोक्षमार्ग को पकड़कर कैसे मोक्षरूप साध्य को प्राप्त कर सकेगा? निश्चयदृष्टि से आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्यों में रत्नत्रय नहीं रहता।
मार्ग है। अतः मोक्ष प्राप्त होता है आत्मा को। अतः आत्मा से ये तीनों भिन्न नहीं हैं, आत्मरूप ही हैं। निश्चयदृष्टि से साध्य भी आत्मा है साधन भी आत्मा है। किन्तु हों दोनों ही शुद्ध रूप में, तभी मोक्ष-प्राप्ति हो सकती है।
समग्र विश्व में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व तथा विश्व के सभी ज्ञात-अज्ञात तत्त्वों या पदार्थों का अधिष्ठाता, मूलाधार, चक्रवर्ती या समग्र आत्मिक ऐश्वर्य-सम्पन्न यदि कोई है तो आत्मा ही। शुद्ध आत्म (जीव) तत्त्व में ही यह शक्ति है कि वह चाहे तो अपने पुरुषार्थ से सर्वकर्ममुक्त, त्रिलोकीनाथ, त्रिलोकपूज्य
बन सकता है। धर्मास्तिकाय आदि पाँचों द्रव्य जीवरूपी राजा को उसकी इच्छा के विरुद्ध बाध्य नहीं कर • सकते। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त, हृदय आदि उस आत्मा की इच्छा से ही अच्छे-बुरे कार्य करते हैं। . उसके अस्तित्व पर ही ये सभी कार्य करते हैं, उसके न रहने पर ये सब ठप्प हो जाते हैं। अतः आध्यात्मिक ऐश्वर्य का सम्राट् आत्मा (जीव) ही सामान्य (अशुद्ध) आत्मा से स्वयं परम विशुद्ध परमात्मा बनने की क्षमता रखता है, बशर्ते कि वह अपने विकल्पों, विकारों और कर्मों को सर्वथा नष्ट करके निश्चयतः सम्यग्दर्शन आदि चतुष्टय के माध्यम से अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थान कर ले।
तीसरी वात-आत्म-स्वरूप कहीं बाहर में नहीं है; मुमुक्षुसाधक को जो कुछ पाना है, वह अपने अन्दर से ही पाना है। बन्ध और मोक्ष अपने अंदर ही हैं। मोक्ष कार्य है और उसका मार्ग यानी साधन-उपाय कारण है। कार्य और कारण दोनों एक ही जगह रहते हैं। इसलिए जहाँ आत्मा है, वहीं उसका मोक्ष तथा जहाँ आत्मा है, वहीं मोक्षमार्ग होना चाहिए। मुमुक्षुसाधक को मोक्ष पाने के लिए करना यह है कि आत्मा का जो शुद्ध-निर्मल स्वरूप कर्ममल से आवृत, सुपुप्त और मूर्छित है, उसे रत्नत्रय से हटाकर शुद्ध स्वरूप को प्रकट (प्रादुर्भूत) कर देना है।
अतः निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग को लक्ष्य में रखकर तदनुरूप व्यावहारिक मोक्षमार्ग पर चलना चाहिए। केवल व्यवहारदृष्टि से रत्नत्रय पर चलने से, तत्त्वभूत पदार्थों का ज्ञान श्रद्धान् करने मात्र से एकान्तवाद, संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय एवं मिथ्यात्व के चक्कर में भी मनुष्य पड़ सकता है। इसी को लेकर कर्मविज्ञान ने एकान्त क्रियावाद, एकान्त विनयवाद, एकान्त अज्ञानवाद, एकान्त तत्त्ववाद व एकान्त अक्रियावाद से मोक्ष की कल्पना करने वाले विविध मतों का खण्डन किया है। भक्ति से सर्वकर्ममुक्ति : कैसे और कैसे नहीं ? .. परमात्म-तत्त्व से, वीतरागता से तथा अपने स्वरूप से विमुख बने हुए मनुष्य परभावों, विभावों में स्वयं को भूलकर कर्मवश नाना दुःखों को भोगते रहते हैं और व्यवहारदृष्टि से उनके अर्थों, रहस्याओं और
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