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________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * १०३ * शास्त्रीय भाषा में संथारा पौरुपी हैं। वस्तुतः संलेखना-संथारा जीवन की अन्तिम आवश्यक अध्यात्म-साधना है। यह बहुत ही भावना और विचार के पश्चात् किया जाता है; जबकि आत्महत्या या समाधि के नाम से किये जाने वाले विविध प्राणोत्सर्ग इनमें कोई अभीष्ट धर्माराधना, चारित्ररक्षा, कषायादि विकारों पर विजय की साधना या समाधिमरण की भावना नहीं है। इनमें और संलेखना-संथारे में आध्यात्मिक और व्यावहारिक-दोनों दृष्टियों से बहुत अन्तर है। संलेखना-संथारे में पाँच अतिचारों से बचने का तथा समस्त सांसारिक और भौतिक परभावों से सम्बन्ध विच्छेद का तथा सब जीवों से क्षमायाचना का तथा आत्म-शुद्धि का आवश्यक निर्देश है, जबकि आत्महत्या या पूर्वोक्त प्राणोत्सर्ग में ऐसा कुछ भी नहीं है। संलेखना-संथारा करने से पूर्व जीवन-मरण की अविध जानना आवश्यक है। अन्त में संलेखना-संथारा आदि की विधि का भी संक्षेप में उल्लेख किया गया है। मोक्ष-प्रापक विविध अन्तःक्रियाएँ : स्वरूप, योग्यता, अधिकारी आध्यात्मिक जगत् में अपनी-अपनी भूमिका में स्थित रहते हुए मोक्षाभिमुख साधकों द्वारा उसी मनुष्य-भव में तत्काल समस्त कर्मों, भवों और जन्म-मरणादिरूप संसार का सदा के लिए अन्त करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा बन जाना लोकोत्तर अन्तःक्रिया कहलाती है। यद्यपि अन्तःक्रिया के लौकिक दृष्टि से दो अर्थ भी शास्त्रों में बताये हैं-(१) मृत्यु के बाद निर्जीव मानव-शरीर का दहन या दफन करके अन्तिम संस्कार करना, तथा (२) मरण के बाद एक भव के शरीरादि छूटना-कालधर्म को प्राप्त होना लौकिक अन्तःक्रिया है, जो यहाँ विवक्षित नहीं है। लोकोत्तर अन्तःक्रिया का अधिकारी एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों में से मनुष्य हो है, देव, नारक या तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय नहीं। मनुष्य को भी किसी परमात्मा, ईश्वर, तीर्थकर, अवतार, देवी देव या आचार्य, गुरु आदि के द्वारा लोकोत्तर अन्तःक्रिया प्राप्त नहीं होती। वह स्वयं के प्रबल पुरुषार्थ से ही प्राप्त होती है। हाँ, अरिहंत, केवली, वीतराग, परमात्मा, आचार्य, उपाध्याय या साधु-साध्योगण आदि प्रेरणा, मार्गदर्शन या समाधान आदि प्राप्त हो सकते हैं। मनुष्यपर्याय में तथारूप केवलज्ञान-दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व तथा यथाख्यान चारित्ररूप परिपूर्ण सामग्री-प्राप्त एवं सर्वकर्मक्षयकर्ता मनुष्य ही मोक्ष-प्राप्तिरूप लोकोत्तर अन्तःक्रिया कर सकता है। अन्तःक्रिया करने के बाद पुनः जन्म-मग्णादिरूप संसार में लौटकर नहीं आता। क्योंकि जैसे बीज जल जाने पर उसमें से अंकुर नहीं फूटता, वैसे ही कर्मवीज जल जाने पर संसाररूप अंकुर उत्पन्न नहीं होता। जो मुमुक्षुसाधक मोक्ष का ही ध्यान. चिन्तन, रटन करता है, मोक्ष के ही अनुष्टानों और उसी की क्रियाओं में रुचि रखता है, मोक्ष की ही भावना और अनुप्रेक्षा से भावित रहता है, मोक्ष का ही उपदेश देता है, संवर-निर्जरारूप धर्म का आचरण करता है. मोक्ष की ही आराधना में तत्पर रहता है, देह-गेह-जीवन-पूजा-प्रतिष्ठा-प्रशंसा से निरपेक्ष होकर अहर्निश मोक्ष-प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करता है, वही लोकोत्तर अन्तःक्रिया करने में सफल होता है। अन्तकृद्दशांगसूत्र में विविध प्रकार से विभिन्न अवस्था के अन्तःक्रिया करने वाले ९० अन्तकृत महापुरुषों का वर्णन है। स्थानांगसूत्र में मुख्यतया अन्तःक्रिया चार प्रकार की बताई गई है-प्रथम अन्तःक्रिया-जो (पूर्व-भव की साधना के फलस्वरूप) अल्पकर्मा होता है। मनुष्य-भव प्राप्त करके विरक्त होकर (या निर्लिप्त रहकर) वह संयम-संवर-समाधिबहुल शीघ्र ही संसार-समुद्र को पार कर लेता है। उसके न तो उस प्रकार का दीर्घकालिक घोर तप होता है और न ही तथाप्रकार की तीव्र वेदना। यथा-भरत चक्रवर्ती। द्वितीय अन्तःक्रिया-इसमें कोई पुरुष बहुत भारी कर्मों के साथ मनुष्य-भव को प्राप्त करके द्रव्यभाव से मुण्डित अनगार होकर वह संयम-संवर-समाधिबहुल साधक अल्पकालिक दीक्षापर्याय में उग्र तपश्चरण या घोर उपसर्ग एवं परीपह की तीव्र वेदना समभावपूर्वक सहन करके निर्मल शुक्लध्यान से अत्यल्प समय में सर्वकर्मवन्धनों का अन्त कर देता है। जैसे-गजसुकुमार मुनि। तृतीय अन्तःक्रिया-कोई पुरुप अत्यधिक सघन कर्मों सहित मानव-भव प्राप्त करके मुण्डित होकर अनगारधर्म में प्रव्रजित होता है। कर्मों की सघनता होने से दीर्घकालिक संयम-साधना में घोर तप भी करता है, तीव्र वेदना भी समभावपूर्वक भोगता है, यानी समभावपूर्वक परीषह, उपसर्ग सहन करता है और अन्तःक्रिया करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है। यथासनत्कुमार चक्रवर्ती। चतुर्थ अन्तःक्रिया-कोई मानव अत्यल्प कर्मों सहित मानव-भव प्राप्त करके अनगार बनकर या भावसंयम ग्रहण कर, संयमादिबहुल होकर अत्यल्पकालिक संयमपर्याय (भावसंवर) से ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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