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________________ • समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल ६३ साधना ही आत्म-साधना है। भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के कालास्यवेषी अनगार ने भगवान महावीर के अनुयायी स्थविर मुनिराजों से जब प्रश्न किया कि सामायिक क्या है? सामायिक का अर्थ (प्रयोजन या उद्देश्य ) क्या है ? उत्तर में उन्होंने कहा- हे आर्य ! आत्मा ही सामायिक है और आत्मा (आत्म-भाव की उपलब्धि) ही सामायिक का अर्थ है । आत्म-साधना क्या है ? वह समतायोग-साधना को कैसे परिष्कृत करती है ? अनघड़, विषम, असंस्कृत एवं विषय-वासनाओं तथा सुख-सुविधाओं की मिट्टी और कीचड़ से मिश्रित आत्मा का परिशोधन करना, सामान्य पाशविक जीवन से युक्त आत्मा को दैवी और मानवीय जीवन की सम्पदाओं से, समतायोग के लिए सक्षम और उपयोगी बनाना तथा सम्यक्, सघन एवं सर्वतोमुखी आत्म-विज्ञान के सहारे सुषुप्त अन्तश्चेतना को प्रखर, तेजस्वी और समृद्ध बनाना, प्रसुप्त अन्तःशक्तियों को जगाना और अपनी क्षमताओं को व्यवस्थित रूप से आत्म-विकास में नियोजित करना ही वास्तविक आत्म-साधना है। आत्म-साधना का प्रयोजन अपने अन्तर में निहित कामनाओं, वासनाओं तथा कषाय- कलुषों पर विवेकपूर्वक विजय प्राप्त करके आत्मा को परिष्कृत एवं शुद्ध करना एवं अपने अविवेक, असंयम और आवरण को हटाना ही सम्भव हो सकता है। जैसे दूरदर्शी सृजनात्मक प्रयासों के आधार पर हिंस्र एवं खूंख्वार प्राणियों को आज्ञानुवर्ती एवं उपयोगी बना लिया जाता है, कँटीली झाड़ियों के स्थान पर सुगन्धित एवं शान्त-सुवासित पवन वाले उद्यान खड़े कर दिये जाते हैं, ऊसर भूमि को उपजाऊ और लहलहाती हुई फसल वाला बना दिया जाता है, इसी प्रकार आत्म-साधना के साधक द्वारा किये गए अपने दूरदर्शी एवं विवेकपूर्ण प्रयासों एवं पराक्रमों से आत्मा को प्रखर, तेजस्वी, गुण- समृद्ध एवं समतायोग के शिखर पर आरूढ़ होने अर्थात् पूर्ण वीतरागता प्राप्त करने में सक्षम और उपयोगी बनाया जाता है। इससे जीवन सम्पदाओं का सुव्यवस्थित और सांगोपांग उपयोग एवं प्रयोग हो जाता है । यहीं जाकर समतायोग ( सामायिक) और आत्म-साधना अन्योन्याश्रित अथवा कार्य-कारणभाव से युक्त हो जाते हैं। • व्यवहारदृष्टि से सामायिक-साधना का लक्षण एवं फलितार्थ व्यवहारदृष्टि से साधनात्मक सामायिक का अर्थ एक आचार्य ने यों किया हैसम का अर्थ है–“सावद्ययोग - परिहार (पापयुक्त मन-वचन-काय की प्रवृत्ति का त्याग) और निरवद्य (पापरहित) योगानुष्ठानरूप जीव का परिणाम । उसकी आय यानी लाभ (उपलब्धि) समाय है, वही सामायिक है ।" एक आचार्य ने सामायिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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