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* ६४ * कर्मविज्ञान : भाग ८ *
का लक्षण इस प्रकार किया है-“समस्त प्राणियों के प्रति समभाव, संयम, मैत्री आदि शुभ भावना और आतं-रौद्रध्यान का परित्याग करना, यही है सामायिक व्रत।" 'अनुयोगद्वारसूत्र' में सामायिक-साधना का लक्षण इस प्रकार है-“जिसकी आत्मा संयम में, नियम में और तप में सुस्थिर रहे, उसी के सच्ची सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान ने कहा है।"
कई श्रावकों की समभाव की साधना इतनी सुदृढ़ होती है कि वे मरणान्त कष्ट आ पड़ने पर भी समभाव से विचलित नहीं होते, उनका धैर्य ध्वस्त नहीं होता। इसलिए 'आचारांगसूत्र' में कहा गया है-“वह न तो जीने की आकांक्षा करे
और न ही शीघ्र मर जाने की आकांक्षा करे। समतायोगी साधक जीवन और मरण दोनों में ही किसी प्रकार की आसक्ति रखे, दोनों में सम रहे।' समतायोग का पूर्ण आदर्श : वीतरागता : क्या, क्यों, कैसे ? __ जिस व्यक्ति में समत्व का विकास हो जाता है, उसमें सन्तुलन; तटस्थता और संयम, ये तीनों समत्व की अवस्थाएँ प्रकट होती हैं। कषायें उपशान्त या क्षीण करने पर समत्वचेतना जागती है। समतायोग का पूर्ण आदर्श वीतरागता है। सभी स्थितियों में राग-द्वेषरहित होकर समभाव रखना वीतरागता का संक्षिप्त अर्थ है। वस्तुतः वीतरागभाव या समभाव स्व-भाव का ही दूसरा रूप है। स्वयं को म्व-भाव में, स्व में या समभाव में रखना वीतरागता की साधना है। इस प्रकार की वीतरागतारूप उत्कृष्ट समतायोग (सामायिक) की साधना होती है। सिद्धान्त के अनुसार-जब दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का क्षय, क्षयोपशम या उपशम होता है, तब समता की प्राप्ति होती है। समत्वभाव से आत्मा की स्वरूप में स्थिरता का विकास होता है तथा वीर्यान्तरायकर्म के क्षय या क्षयोपशम वीर्योल्लास की वृद्धि होती है। समत्वभाव में स्थिरीभाव को प्राप्त आत्मा क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर मुक्ति प्राप्त कर लेती है। ऐसी समता की प्रज्ञा जव जागती है तो साधक इसी प्रक्रिया से वीतरागभाव को प्राप्त करके सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष को प्राप्त करता है। इसीलिये समत्व के शिखर पर पहुँचे हुए साधक के लिए कहा गया है"समत्वदर्शी कोई भी पाप नहीं करता।" ।
१. (क) समः मावद्ययोग परिहार : निरवद्य-योगानुष्ठानम्प जीव-परिणामः।
तम्यायः लाभः ममायः. समाय एव सामायिकम् ॥ (ख) समता सर्वभूतेषु मंयमः शुभभावनाः।
आर्त-रौद्र परित्यागाद्ध सामायिकं व्रतम्।। (ग) जम्म सामाणिओ अप्पा. संजमे नियमे तवे। तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥
-अनुयोगद्वार १२७
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