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ॐ ६२ ® कर्मविज्ञान : भाग ८ *
समतायोग का तृतीय रूप : साधनात्मक समभाव अनगार-सामायिक और आगार-सामायिक : स्वरूप और प्रयोग
इसमें समतायोग का साधनात्मकरूप है। भगवान महावीर ने सामायिक साधना दो प्रकार की बताई है-आगार-सामायिक (देशविरति-श्रावक की) और अनगारसामायिक (सर्वविरित-साध्वर्ग की)। गृहस्थ श्रावक की एक सामायिक-साधना एक मुहूर्त (४८ मिनट) की होती है, जबकि अनगार की सामायिक यावज्जीवन की होती है। किन्तु सामायिक का सिद्धान्त, तत्त्व प्रयोग और स्वरूप तो साधु-श्रावक दोनों के लिए एक-सा है। साधुवर्ग के लिए पद-पद पर समभाव देखना अनिवार्य है, जबकि श्रावकवर्ग के लिए सामायिक-साधना में जितनी देर रहे, उतनी देर तक हिंसादि १८ पापों का त्याग करना तथा शुभ या शुद्ध भावों में प्रवृत्त रहना
आवश्यक है। साधुवर्ग दीक्षा लेते समय-“करेमि भन्ते ! सामाइयं।''-भगवन् ! मैं यावज्जीव सामायिक-साधना स्वीकार करता हूँ। इसलिए उसे भी मर्यादितकाल तक पल-पल में मन-वचन-काया से विषमभाव या पापमय (सावद्य) प्रवृत्ति का त्याग करके निरवद्य समभावी प्रवृत्ति करना ही उचित है। श्रावकवर्ग को द्रव्यसामायिक-साधना तो काल-सापेक्ष है, किन्तु भाव-सामायिक कालनिरपेक्ष है, वह साधु-श्रावक दोनों के लिए आवश्यक है। भले ही श्रावकवर्ग एक या दो सामायिक उपाश्रय या जैनस्थानक में करता है, परन्तु उसकी उक्त साधना का प्रभाव जीवन के सभी क्षेत्रों के कार्यकलापों पर पड़ना चाहिए। परिवार, समाज, राष्ट्र, सम्प्रदाय, जाति आदि सभी क्षेत्रों में यथासम्भव समभाव-प्रयोग करना चाहिए। धर्मस्थान या उपाश्रय तो समता का अभ्यास करने के लिए पाठशाला है, किन्तु उसका प्रयोग व्यावहारिक धरातल पर जीवन के सभी क्षेत्रों में करने से ही श्रावकवर्ग पापकर्मबन्ध से बच सकता है।' आत्म-साधना और सामायिक दोनों अन्योन्याश्रित हैं : क्यों और कैसे ?
निश्चयदृष्टि से देखा-सोचा जाए तो आत्म-साधना और समतायोग दोनों परस्पराश्रित प्रतीत होते हैं। समय आत्मा का नाम है। आत्मा में स्थित रहने की
पिछले पृष्ठ का शेष(ख) देखें-आवश्यकसूत्र में अविवेक जसोकित्ती आदि सामायिक साधना के १0 मानसिक
दोष १. (क) देखें-स्व. उपाध्याय अमर मुनि लिखित सामायिकसूत्र सभाष्य तथा पं. वेचरदास जी
लिखित 'अन्तर्दर्शन' (ख) दुविहे सामाइए पण्णते तं.-आगारसामाइए चेव अणगारसामाइए चेव।
-स्थानांगसूत्र, स्था. २, उ. ३, सू. २४९
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