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ॐ २१० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८*
फिर संसार में भिन्न-भिन्न मत, पंथ, धर्म और दर्शन हैं, नाना शास्त्र हैं, वहुत-से धर्मप्रवर्तक हैं, किसका ज्ञान सत्य है, किसका असत्य? इसका निर्णय और विवेक करना बहुत ही कठिन है। किसी शास्त्र का उपदेश देते हुए किसी सर्वत को नहीं देखा। ये शास्त्रोक्त वचन सर्वज्ञ के हैं या सर्वज्ञ-प्ररूपित अथवा सर्वज्ञकथन-सम्मत हैं या नहीं? शास्त्रोक्त अमुक कथन का यही अर्थ या अन्य कोई ? इस प्रकार का निश्चय करना भी टेढ़ी खीर है। अतः इन सव झमेलों से दूर करने के लिए अज्ञान का सहारा लेना ही हितावह है।' तृतीय प्रकार का अज्ञानवाद : स्वरूप एवं प्रकार __ 'सूत्रकतांगसूत्र' के १२वें समवसरण नामक अध्ययन में भी अज्ञानवाद की समीक्षा की गई है। एकान्त अज्ञानवादी ज्ञान के अस्तित्व (वस्तुम्वरूप) का अपलाप करके अत्यन्त विपरीत भाषण करते हैं, स्वयं संशय में पड़ते हैं, दूसरों को संशय में डालते हैं। वे सम्यग्ज्ञानरहित होने से मिथ्यादृष्टि हैं। इस प्रकार के अज्ञानवादियों के ६७ भेद बताएँ गये हैं। जीवादि नौ तत्त्वों पर निम्नोक्त ७ भंग (विकल्प) रखे जाते हैं। जैसे-(१) जीव आदि सत् हैं, यह कौन जानता है ?, (२) असत् हैं, (३) सत् भी हैं, असत् भी हैं, (४) अवक्तव्य हैं, (५) सत् अवक्तव्य हैं, (६) असत् अवक्तव्य हैं, और (७) सत्-असत् अवक्तव्य हैं। इस प्रकार ९ तत्त्वों पर प्रत्येक पर ७-७ भंग होने से ९ ४ ७ = ६३ भंग हुए। इनके अतिरिक्त ४ भंग ये हैं-सत् (विद्यमान) पदार्थ की उत्पत्ति होती है, यह कौन जानता है ? और इसे जानने से भी क्या लाभ? इसी प्रकार असत्, सत्-असत् (कुछ विद्यमान और कुछ अविद्यमान) तथा अवक्तव्यभाव के साथ भी पूर्वोक्त प्रकार का वाक्य जोड़ने से ४ विकल्प हुए। यों ६३ + ४ = ६७ भंग (विकल्प = भेद) अज्ञानवादियों के होते हैं। ‘संजयवेलट्ठिपुत्त' का अज्ञानवाद भी सर्वदुःखनाशक मोक्ष का कारण नहीं
अज्ञान श्रेयोवादी की तुलना भगवान महावीर के समकालीन मत-प्रवर्तक 'संजयवेलट्ठिपुत्त' से की जा सकती है। उसका हर पदार्थ के विषय में उत्तर होता“यदि आप पूछे कि क्या परलोक है? और यदि मैं समझू कि 'परलोक है', तो आपको बताऊँ कि परलोक है। मैं ऐसा भी नहीं कहता, वैसा भी नहीं कहता, मैं दूसरी तरह से भी नहीं कहता। मैं यह भी नहीं कहता कि यह नहीं है, मैं यह भी नहीं कहता कि यह नहीं नहीं है। परलोक नहीं है, परलोक है भी और नहीं भी, परलोक न है और न नहीं है।" इस प्रकार 'संजयवेलट्ठिपुत्त' ने कोई निश्चित वात नहीं कही। उसकी तत्त्वविषयक अज्ञेयता और अनिश्चितता ही १. सूत्रकृतांगसूत्र, श्रु. १, अ. १, उ. २, सू. ४०-४४, शीलांक वृत्ति, पत्र ३२-३४ (आ. प्र.
स., ब्यावर), विवेचन, पृ. ५२ २. वही, श्रु. १, अ. १२, विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. ४०२
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