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________________ * निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग : क्या, क्यों और कैसे ? ® २०९ * साधन) मानता है, यह मुक्ति-विरुद्ध है। एकान्त नियतिवादी पण्डितमानी एवं हठाग्रही एकान्त नियतिवाद को पकड़े हुए हैं। संसार में सुख-दुःख आदि सभी नियतिकृत नहीं होते। कुछ सुख-दुःख नियतिकृत होते हैं, क्योंकि उन-उन सुख-दुःखों के कारणरूप कर्म का अबाधाकाल समाप्त होने पर उसका अवश्यमेव उदय होता है, जैसे निकाचित कर्म का। परन्तु कई सुख-दुःख अनियत (नियतिकृत नहीं = सैद्धिक) होते हैं। वे पुरुष के उद्योग (पुरुषार्थ) काल, स्वभाव और कर्म द्वारा किये होते हैं। निष्कर्ष यह है कि काल, स्वभाव, नियति, अदृष्ट (कर्म) और पुरुषकृत पुरुषार्थ; ये पाँचों कारण संसारी जीवों के प्रत्येक कार्य या सुखादि में परस्पर सापेक्ष सिद्ध होते हैं। इस सत्य-तथ्य को न मानकर एकान्त नियति को सर्वदुःखान्तरूप मोक्ष का कारण (मार्ग) मानना दोषयुक्त है, मिथ्या है।' . अज्ञानवाद : संसारपरिभ्रमण का कारण है अज्ञानवादी भी अज्ञान को मोक्ष का मार्ग कहते हैं। परन्तु दीर्घदृष्टि से विचार करने पर अज्ञान-मिथ्याज्ञान या मिथ्यात्व कथमपि मोक्ष का कारण या सर्वदुःखमुक्ति का हेतु नहीं हो सकता। 'सूत्रकृतांगसूत्र' में उक्त अज्ञानवाद के दो रूप बताये हैं-एक तो अज्ञानवादी वे हैं, जो थोड़ा-सा मिथ्याज्ञान पाकर उसके मद या गर्व (श्रुतमद) से उन्मत्त होकर कहते हैं-दुनियाँभर का सारा ज्ञान हमारे पास है। परन्तु उनका ज्ञान केवल ऊपरी सतह का पल्लवग्राही होता है। वे अन्तर की गहराई में उतरकर आत्मानुभूतियुक्त ज्ञान नहीं पा सके। उन्होंने केवल शास्त्रवाक्य तोते की तरह रट लिये हैं, जिन्हें वे भोलेभाले लोगों के सामने बघारा करते हैं। वे तथाकथित शास्त्रज्ञानी वीतराग सर्वज्ञों की अनेकान्तमयी सापेक्षवादयुक्त वाणी का आशय न समझकर उसका अनुवादभर कर देते हैं और उसे संशयवाद कहकर ठुकरा देते हैं। इसीलिए ‘सूत्रकृतांग' में कहा गया है-"णिच्छयत्थं ण जाणंति।''-वे निश्चित अर्थ को नहीं जानते। दूसरे अज्ञानवादी वे हैं, जो कहते हैं-"अज्ञान ही श्रेयस्कर है। कुछ भी जानने की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान न होने पर वाद-विवाद, कषाय, अहंकार, संघर्ष, श्रुतमद, वाक्कलह आदि से बचे रहेंगे। जान-बूझकर अपराध करने से भयंकर दण्ड मिलता है, जबकि अज्ञानवश अपराध होने पर बहुत ही कम दण्ड मिलता है, कभी नहीं भी मिलता। मन में राग-द्वेषादि उत्पन्न होने देने का यह सबसे आसान उपाय है-ज्ञानपूर्वक प्रवृत्ति करना छोड़कर अज्ञान में ही लीन रहना। इसलिए मुमुक्षु के लिए अज्ञान ही श्रेयस्कर है।" १. (क) न तं सयंकडं दुक्खं, कओ अन्नकडं च णं? सुहं वा जइ वा दुक्खं, सेहियं वा असेहियं॥ -सूत्रकृतांग १/१/२/२ (ख) सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. १, उ. २, गा. २-५, विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. ४३-४७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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