________________
१९६ कर्मविज्ञान : भाग ८
जाते हैं, अपना कार्य बंद कर देते हैं । हमने अलंकारिक भाषा में जीव को चक्रवर्ती. की उपमा दी है, परन्तु यह चक्रवर्ती से भी बढ़कर महान् है। चक्रवर्ती अपने सीमित क्षेत्र का अधिपति होता है, उसके बाहर एक अणुमात्र पर भी उसका शासन या अधिकार नहीं होता, जबकि परम आध्यात्मिक ऐश्वर्य का सम्राट् और चक्रवर्ती से भी बढ़कर है यह आत्मा । जो सामान्य आत्मा से परमात्मा स्वयं बनने की क्षमता रखता है। जब स्वयं आत्मा अपने विकल्पों, विकारों और कर्मों को सर्वथा नष्ट करके अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होकर आत्मा से परमात्मा बन सकता है। चाहिए आत्मा को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यकूतप का निश्चयदृष्टि से स्व-स्वरूप में अवस्थान । मोक्ष का अर्थ ही हैं - आत्मा की वह विशुद्ध अवस्था, जिसमें आत्मा का किसी भी विजातीय तत्त्व के साथ संयोग नहीं रहता और समग्र विकल्प एवं विकारों का अभाव होकर आत्मा का स्वरूप में स्थिर हो जाना ही मोक्ष है।
अन्य सभी तत्त्वों का मूलाधार जीव ही है
इसी आधार पर निश्चय मोक्षमार्ग में आत्मा (शुद्ध आत्मा) को ही देखना - उस पर ही विश्वास करना, उसे ही अनुभवपूर्वक जानना-समझना और उसी के अनुकूल अहिंसादि का आचरण करना अनिवार्य बताया है, क्योंकि तत्त्वों में वही मुख्य तत्त्व, द्रव्यों में वही प्रधान द्रव्य और पदार्थों में प्रमुख पदार्थ है। इस संसार में जितने भी तत्त्व, पदार्थ या द्रव्य हैं, वे सब किसी न किसी प्रकार से जीव ( आत्मा ) से सम्बन्धित हैं। जीव की सत्ता के कारण ही आम्रव और बन्ध की तथा संवर और निर्जरा की सत्ता रहती है। मोक्ष भी तो जीव से ही सम्बन्धित है, वह भी जीव की सर्वथा शुद्ध अवस्था - विशेष है। फलितार्थ यह है कि समग्र अध्यात्म-विधा का मूलाधार यह जीव (आत्मा) है, इसी की धुरी पर जीव के आनव और बन्ध का, संवर और निर्जरा तथा मोक्ष का दारोमदार है। अजीव भी जीव का विपरीत भाव है। अजीव शब्द का उच्चारण करते ही उसमें से मुख्यतया जीव की ध्वनि कानों में पड़ती है, मन-मस्तिष्क में उभरती है।
जीव के ज्ञान के साथ अजीव का बोध आसान
इसीलिए जीव (आत्मा) का दर्शन या विश्वास, उसका अनुभवात्मक ज्ञान तथा शुद्ध आत्मानुकूल आचरण को सर्वप्रथम अनिवार्य बताया है-मोक्ष-प्राप्ति के लिए जब जीव (चेतन या आत्मा) का वास्तविक बोध हो जाता है, तब जीव से भिन्न अजीव को - जड़ को पहचानना - जानना आसान हो जाता है। जीव का प्रतिपक्षी अजीव है। इसलिए अजीव के ज्ञान के लिए जीव को ही आधार बनाना पड़ता है। जीव के ज्ञान के साथ अजीव का ज्ञान भी स्वतः हो जाता है, क्योंकि जीव का लक्षण ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य (आत्म-शक्ति) और उपभोग, ये ६ बातें
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org