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________________ ॐ निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग : क्या, क्यों और कैसे? ॐ १९५ * आत्मा ही है। शुद्ध आत्मा में ही ये सब तत्त्व निहित हैं। इसे त्रिलोकीनाथ वनाने वाला दूसरा कोई नहीं है, यह स्वयं ही अपनी शक्ति से त्रिलोकीनाथ या त्रिलोकपूज्य बनता है। आत्मा के अतिरिक्त जगत् में अन्य सभी द्रव्य, तत्त्व या पदार्थ, उसके दास या सेवक हैं। जैसे राजा या इन्द्र के सेवक उसकी आज्ञा के पालन में तत्पर रहते हैं, वैसे ही (आत्मा) जीवरूपी राजा या इन्द्र के आदेश का पालन करने के लिए अन्य द्रव्य, अन्य तत्त्व तथा अन्य (पर) पदार्थ (पुद्गल आदि) सदा तत्पर रहते हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल; ये पाँचों द्रव्य जीव (आत्मा) के सेवक और दास हैं। इनकी कोई शक्ति या क्षमता नहीं है कि वे जीवरूपी राजा की आज्ञा या इच्छा में किसी प्रकार की बाधा खड़ी कर सकें। जीवरूपी राजा को धर्मास्तिकाय यह आदेश देकर बाध्य नहीं कर सकता कि चलो, जल्दी-जल्दी गमन करो। अधर्मास्तिकाय भी जीवरूपी राजा को बाध्य नहीं कर सकता कि यहाँ टहर जाओ, गति स्थगित कर दो। न ही आकाशास्तिकाय यह कह सकता है कि यहीं तुम्हारे लिए अवकाश है, आगे नहीं। पुद्गलास्तिकाय भी जीव के द्वारा स्वयं के उपभोग या उपयोग के लिए सन्नद्ध रहता है। काल भी उसकी पर्याय के परिवर्तन के लिए तैयार रहता है। इनकी कोई ताकत नहीं है कि वे जीव (आत्मा) को उसकी इच्छा के विरुद्ध चला सकें, ठहरा सकें अथवा अन्य किसी कार्य को जबरन करा सकें। जब भी जीव (आत्मा) की इच्छा होती है, वह चलता है, ठहरता है या आकाश में अवकाश पाता है या किसी पुद्गल का उपभोग या उपयोग करता है, कर्मपुद्गलों को वह अपनी ही स्वैच्छिक हरकतों से आकर्षित करता है, अपने ही पराक्रम से, स्वकृत उदीरणा से क्षय कर डालता है। जब भी जीव की इच्छा होती है, वह कोई भी कार्य करता है। कुछ भी करने, न करने में वह स्वतन्त्र है। उस पर कोई भी रोकटोक नहीं कर सकता। अन्य पदार्थ या तत्त्व उसके कार्य में या क्रियाकलाप में निमित्तमात्र हो सकते हैं, वे भी तटस्थ या उदासीन निमित्त, प्रेरक निमित्त नहीं। यह जड़ शरीर, इसमें रहने वाली इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त आदि भी इस जीव (आत्मा) की इच्छा से ही अच्छे-बुरे कार्य करते हैं। परन्तु ये सब तभी तक कार्य करते हैं, जब तक जीव (आत्मा) रूपी राजा इस शरीररूपी महल में रहता है। उसकी सत्ता (अस्तित्व) पर ही संसार के सारे खेल चलते हैं। इस जड़ात्मक जगत् का सर्वोपरि अधिष्ठाता और चक्रवर्ती जब तक इस शरीर में रहता है, तभी तक वह सारी चेष्टाएँ करता है, इन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होती हैं, मन भी अपना कार्य करता रहता है। किन्तु जब इस तन में से चेतन निकल जाता है, तब तन, मन, वचन, इन्द्रिय-समूह आदि सब बेकार हो १. 'अध्यात्म प्रवचन' से भाव ग्रहण, पृ. ३०९-३१० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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