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ॐ निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग : क्या, क्यों और कैसे ? * १९७ 8
(लक्षण) जीव को पहचानने के लिए 'उत्तराध्ययनसूत्र' में बताई गई हैं। 'तत्त्वार्थसूत्र' में जीव का लक्षण उपयोग बताया है जिसमें उपयोग न हो अथवा पूर्वोक्त ६ वातें न हों, वह अजीव है। इसीलिए अजीव से पहले जीव को प्रमुख और अग्रगण्य स्थान है।
जीव से पहले अजीव को स्थान क्यों नहीं ? : एक शंका-समाधान कतिपय लोगों का तर्क है कि सबसे पहले हमारी अनुभूति और प्रत्यक्ष का विषय अजीव-जड़ पदार्थ ही बनता है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त ये सब जड़ ही तो हैं। जीव की प्रत्येक क्रिया इन जड़ पदार्थों एवं पुद्गलों के आधार पर होती दिखाई देती है। इसलिए जीव से पहले अजीव को स्थान क्यों नहीं दिया गया? - इसका समाधान यह है कि शरीर में से शरीरी (आत्मा = जीव) को निकाल देने पर इनकी (तन-मन आदि की) सत्ता ही नष्ट हो जाती है, जबकि जीव तो मोक्ष होने के बाद भी शाश्वत (नित्य) रहता है। इसलिए नौ तत्त्वों में अजीव से पहले जीव को रखा गया है। पुण्य, पाप, आम्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये सब जीव की अशुद्ध-विशुद्ध पर्यायें हैं-अवस्था-विशेष हैं। ये सब तत्त्व स्वतंत्र कहाँ हैं ? मोक्ष के हेतु संवर और निर्जरा तथा संसार के हेतु आस्रव और बन्ध, जीव की ही अवस्थाएँ हैं। जीव के अभाव में बन्ध और मोक्ष किसको होंगे? इसीलिए 'आचारांगसूत्र में कहा गया-“बन्ध और मोक्ष बाहर कहीं नहीं हैं, तुम्हारे (आत्मा में) अन्दर में ही हैं।
सभी शुभाशुभ क्रियाओं का आधार जीव है आत्मा जब तक शरीर में विद्यमान रहता है, तब तक वह या उसके अन्तर्गत तन-मन-वचन और इन्द्रियाँ तथा चित्त आदि अपना-अपना कार्य करते रहते हैं। शुभ या अशुभ क्रियाओं का आधार भी जीव ही है। जीव के अभाव में न तो शुभ क्रिया हो सकती है और न अशुभ। मन-वचन-काया की तमाम प्रवृत्तियों का आधार जीव है। ..जीव के निकलते ही तन, मन, वचन आदि सब अपना काम एक साथ, एकदम बन्द कर देते हैं। अतः विश्व की व्यवस्था का मूलाधार जीव ही है। यदि जीव (आत्म) तत्त्व न हो तो विश्व की सारी व्यवस्थाएँ ठप्प हो जायेंगी। जीव की सत्ता के कारण ही आस्रव और बंध की तथा संवर और निर्जरा की सत्ता रहती है।
इस अनन्त सृष्टि का अधिनायकत्व जो जीव को मिला है, उसका मुख्य कारण उसका ज्ञान गुण है। ज्ञान होने के कारण वह ज्ञाता-द्रष्टा है, शेष संसार ज्ञेय है, १. (क) नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा।
वीरियं उवओगो य एयं जीवस्स लक्खणं॥ -उत्तरा., अ. २८, गा. ११ (ख) उपयोगो लक्षणम्।
-तत्त्वार्थसूत्र २/८
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