________________
कषायों और नोकषायों का प्रभाव और निरोध ॐ ७९ *
लाभ विजय
लोभ का साम्राज्य आज जीवन के सभी क्षेत्रों में स्थापित हो चुका है। धार्मिक क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रह गया है। जहाँ सन्तोष, शान्ति और त्याग की महिमा थी, वहाँ भी धन, पद, प्रतिष्ठा, पूजा, प्रशंसा और प्रसिद्धि से लोभ का बाजार गर्म है। कर्मबन्ध और भविष्य में नरक और तिर्यञ्चगति के मेहमान बनने की बात को आज के तथाकथित धर्मनेता एवं भगवान का लेबल लगाये हुए लोभी व्यक्ति भूलते जा रहे हैं।
जिसके पास ज्यादा है अथवा जहाँ धन का लाभ ज्यादा होता है, वहाँ उसको उतना ही लोभ अधिक होता है, यह तथ्य भी एकांगी है। जिसके पास नहीं है अथवा कम है, उसे भी आशा, तृष्णा, लालसा और स्वार्थसिद्धि का लोभ लगा हुआ है। त्यागभावना, संतोषवृत्ति तथा स्वेच्छा से संवर-निर्जरा-धर्म को अपनाने की बात आज लोगों के दिलों में से प्रायः हटती जा रही है। परन्तु ऐसे लोगों को अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति न होने पर अतृप्ति रहती है, फिर पाने के लिए लालसा जगती है, संतोष और शान्ति प्राप्त नहीं होती।
लोभ विजय के अनूठे उपाय भगवान महावीर ने लोभ पर विजय प्राप्त करने के लिए छोटा-सा सूत्र दिया"लोभं संतोसओ जिणे।" अर्थात् लोभ को संतोष से, त्याग से, व्युत्सर्ग से जीते। उन्होंने 'आचारांगसूत्र' में-“जो विषयभोगों की प्राप्ति की लालसा के दलदल से पारगामी हो जाते हैं, वे ही वास्तव में कर्मों से विमुक्त हों। अलोभ (सन्तोष) से लोभ को पराजित करता हुआ साधक कामभोग प्राप्त होने पर भी उनकी आकांक्षा नहीं करता, न ही ग्रहण करता है। अतः लोभ पर विजय प्राप्त करने, उसे वश में करने के लिए संतोष, त्याग, व्युत्सर्ग, सादगी और निर्लोभता का जीवन व्यतीत करना ही अभीष्ट है। ऐसे साधक के लिए कहा गया है कि जीवनयापन के योग्य वस्तुओं का प्रचुर लाभ होने पर मद न करे और लाभ न हो तो शोक (चिन्ता) न करे, अधिक मात्रा में प्राप्त होने पर न तो आसक्त हो, न संग्रह करे।"१
कपिल ने लोभ पर विजय प्राप्त करके केवलज्ञान पाया - कपिल विप्र दो माशा सोने की प्राप्ति के लोभ में राजा से माँगने गया। राजा ने उसकी असलियत पहचानकर उसे मुँहमाँगी सम्पत्ति एवं वस्तु देने का आश्वासन १. (क) दशवैकालिक, अ. ८, गा. ३९ (ख) विमुक्का हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो।
लोभमलोभेण दुगुंछमाणे लद्धे कामेणाभिगाहंति॥ -आचारांग १/२/२/७१ (ग) लाभो त्ति ण मज्जेज्जा, अलाभो ति ण सोएज्जा; बहुं पि ल« ण णिहे।
-वही १/२/५/८९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org