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________________ ॐ ७८ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ व्यसनरूपी लताओं का कन्द है। वास्तव में लोभ, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, चारों पुरुषार्थों में बाधक है।' 'उत्तराध्ययन' में कहा है-“लोभाविष्ट मानव अदत्त ग्रहण (चोरी) करता है।"२ पाप का बाप लोभ : एक ज्वलन्त दृष्टान्त ___ एक ब्राह्मण पण्डित १२ वर्ष तक काशी में पढ़कर घर लौटा। उसकी धर्मपत्नी ने पूछा-"आपने तो बहुत शास्त्र पढ़ लिए हैं, तो बताइए पाप का बाप कौन है?" पण्डित जी का माथा ठनका। शास्त्रों के पारायण करने पर भी उन्हें उत्तर. नहीं मिला। अतः इस प्रश्न के उत्तर के लिए पुनः काशी जाने के लिए पण्डित जी ने प्रस्थान किया। रास्ते में एक गाँव में एक बड़ा-सा मकान देखकर पण्डित जी ने सोचा-“यहाँ ठहरकर विश्राम एवं भोजन कर लें।" पण्डित जी को बाहर खड़े देख घर की मालकिन वेश्या बाहर आई और कहा-“पधारिये, स्वागत है।" घर में प्रवेश करते ही पण्डित जी को पता लगा कि यह वेश्या का घर है, अतः वापस लौटने लगे। वेश्या ने कहा-“पण्डित जी ! आप कहाँ जा रहे हैं ? क्यों जा रहे हैं ?" पण्डित जी ने कहा-" ‘पाप का बाप कौन है?' इसके उत्तर के लिए मैं काशी जा रहा हूँ।" वेश्या रहस्य समझ गई। बोली-“एक दिन ठहरिये, मुझे भी आपका आतिथ्य करने का लाभ दीजिये।" पण्डित ना-नुकुर करने लगे तो वेश्या ने स्वर्ण-मुद्राएँ दिखाईं। अतः वेश्या भोजन बनाकर थाली में परोसकर लाई। मिष्टान्न देखकर पण्डित जी का मन ललचाया। फिर वेश्या जब अपने हाथ से कौर देने लगी तो पण्डित जी ने मुँह फेर लिया। वेश्या ने फिर कई मुहरें और उन्हें दीं। पण्डित जी को वेश्या के हाथं का यह सोचकर खाने का मन हुआ कि काशी में गंगास्नान करके पवित्र हो जाऊँगा। पण्डित जी ने खाने के लिए ज्यों ही मुँह खोला वेश्या ने एक चपत उनके मुँह पर जड़ दी। फिर कहा-“अब उत्तर मिल गया न आपको कि पाप का बाप कौन है ?" पण्डित जी मान गये और शर्मिंदा होकर चुपचाप घर चले गये। लोभ पाप का बाप क्यों है ? इसकी यह मुँह बोलती कहानी है।३ १. (क) सर्वेषामेव पापानां निमित्तं लोभ एव हि। चातुर्गतिक संसारे, भूयो भ्रम निबन्धनम् ॥ (ख) आकरः सर्वदोषाणां, गुणग्रसनराक्षसः। कन्दो व्यसनवल्लीनां, लोभः सर्वार्थ-बाधकः॥ २. लोभाविले आययइ अदत्तं। -उत्तराध्ययन ३२/९४ मायामुखं बड्ढइ लोभदोसा। -वही ३२/९५ ३. 'पाप की सजा भारी, भा. २' से संक्षिप्त, पृ. ७०२-७०३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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