SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ ८० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ * दिया। बगीचे में शान्ति से बैठकर कपिल सोचते-सोचते इस परिणाम पर पहुँचा कि ये सभी वस्तुएँ नश्वर हैं, टिकने वाली नहीं हैं, परलोक में भी साथ जाने वाली नहीं हैं, आत्मा के पास अनन्त ज्ञानादि धन है; वही स्थायी है, शाश्वत है। उसे छोड़कर अस्थायी एवं नश्वर वस्तु को क्यों माँगा जाए? उसने अपनी भूल के लिए पश्चात्ताप किया-दो माशा सोने का कार्य करोड़ तोले सोने से भी पूरा नहीं हुआ। धिक्कार है मेरी लोभ दशा को ! क्यों मैं इस पाप में फँसा? मैंने बहुत बड़ा अपराध किया है ? इस प्रकार पश्चात्ताप की धारा में बहते-बहते आत्म-धन को पाने की तीव्रतम ध्यानाग्नि ने घातिकर्मों को नष्ट कर दिया, घातिकर्मबन्धन टूटते ही केवलज्ञान प्रगट हो गया। 'आचारांगसूत्र' इस तथ्य का साक्षी है-जो उच्च कोटि का साधक लोभ कषाय से विरत होकर प्रव्रजित हो जाता है, वह अकर (कर्मावरण से मुक्त) होकर (केवलज्ञान प्राप्त करके) सब कुछ जानता-देखता है।' लाभ विजय से आत्म-शान्ति, सन्तोष । अतः लोभ की वृत्ति एक जन्म में एक बार भी जोर पकड़ती है और उसे विवेवपूर्वक रोका नहीं जाता है तो वह जन्म-जन्मान्तर तक पीछा नहीं छोड़ती है। जन्म-जन्मान्तर में ही लोभ के संस्कार उसके जीवन में उमड़-घुमड़कर आते हैं, फिर वह अनेक पापकर्मों को बाँधकर दुर्गति में जाता है। इस प्रकार लोभ के चक्कर में पड़कर बार-बार संसार-वृद्धि करने की अपेक्षा त्याग और सन्तोष के द्वारा लोभ पर विजय पाकर संसारवृद्धि की परम्परा को तोड़ देना और आत्म-शान्ति प्राप्त करना क्या बुरा है? जिन-जिन लोगों ने लोभ के चक्कर में पड़कर लोगों को लूट-खसोटकर धन इकट्ठा किया, भ्रष्टाचार, अनाचार, अत्याचार और अन्यायअनीति से धन कमाकर उससे आनन्द और शान्ति पाने की आशा रखी, जिन्होंने बड़े-बड़े साम्राज्य स्थापित किये, वे अन्तिम समय में घोर पश्चात्तापपूर्वक दुर्गति में गए, उनका नामोनिशान भी नहीं रहा। अतः लोभ के दुर्लघ्य महासागर को पार करने के लिए त्याग और संतोष का सेतु बनाना ही हितावह है। पूणिया श्रावक कितना संतोषी और सुखी था? उसे अभाव ने कभी पीड़ित नहीं किया। लोभ विजय का उत्तम परिणाम बताते हुए भगवान ने कहा-“लोभ विजय से जीव सन्तोष को प्राप्त करता है। लोभ वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता, पूर्व में बद्ध कर्म की निर्जरा कर देता है।''२ १. (क) देखें-उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ८ में कपिलकेवली का वृत्तान्त (ख) विणा वि लोभं निक्खम्म एस अकम्मे जाणति पासति। -आचारांग १/२/२/७१ २. (क) देखें-आवश्यकनियुक्ति में पूणिया श्रावक का वृत्तान्त (ख) लोभविजएणं सन्तोसं जणयइ। लोभवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ। पुव्वबद्धं च निज्जरेइ। -उत्तरा., अ. २९, सू. ७० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy