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________________ * कषायों और नोकषायों का प्रभाव और निरोध ८१ इस प्रकार चारों कषायों पर विजय प्राप्त करने तथा उनका निग्रह करने से आत्मा शुद्ध होती जाती है, संसार परिभ्रमण को घटाती जाती है और संवरनिर्जरा के द्वारा क्रमशः सर्वकर्मों से मुक्त हो जाती है। नोकषाय : स्वरूप और अर्थ इसके बाद कर्ममुक्ति के मुमुक्षु साधक को कषायों के उपजीवी नोकषायों पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। नोकषाय का अर्थ होता है - ईषत् - अल्प, कषाय । नोकषाय कषायों को उत्तेजित करने वाले हैं। = हास्य नोकषाय : स्वरूप और कटु फल इन नौ प्रकार के नोकषायों में सबसे प्रथम नोकषाय है- हास्य। यह मोहनीय कर्म का ही प्रकार है । हास्य का अर्थ है - हँसी-मजाक करना, किसी की मश्करी करना, किसी की बिगड़ती बाजी, गिरती दशा अथवा रोग, व्याधि या चिन्ता की दशा पर हँसना, व्यंग्य करना, ताने मारना अथवा किसी के दुःख या विपत्ति को . हँसकर टाल देना; ये सब हास्य नोकषाय के प्रकार हैं। इसी प्रकार सर्वकर्ममुक्त सिद्ध-बुद्ध परमात्माओं की अथवा जीवन्मुक्त अरिहन्त परमात्मा की, धर्म-धुरन्धर साधु-साध्वियों की, धर्म-परायण श्रावक-श्राविकाओं की, धर्म-परायण संघ, गण और कुल की हँसी उड़ाना, उनके प्रति अवर्णवाद, परिवाद कहकर उनका मखौल उड़ाना आदि भी हास्य मोहनीय कर्मबन्ध के कारण हैं। 'स्थानांगसूत्र' में स्पष्ट कहा है - " पाँच कारणों से जीव दुर्लभ बोधि बनाने वाले मोहनीय आदि कर्मों का उपार्जन करते हैं - ( 9 ) अर्हंतों का अवर्णवाद ( निन्दा, हँसी या असदोषोद्भावन) करते हुए, (२) अर्हप्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद करते हुए, (३) आचार्य - उपाध्याय का अवर्णवाद करते हुए, (४) चातुर्वर्ण्य (चतुर्विध) धर्मसंघ का अवर्णवाद करते हुए, (५) तप और ब्रह्मचर्य के परिपाक ( फलस्वरूप ) दिव्यगति को प्राप्त देवों का अवर्णवाद करते हुए। " " आशातना भी एक प्रकार से हँसी उड़ाना है। जैसेकूरगडुक मुनि की दूसरे तपस्वी साधु हँसी उड़ाते थे अथवा माष- तुष मुनि को भी शास्त्रीय गाथा याद न होने से अन्य साधु आदि उसका मजाक करते थे। इसी प्रकार साधक परस्पर हँसी-मजाक के सिवाय, “अत्यन्त (मर्यादा से अधिक) हास्य ( खिलखिलाकर या ठहाका मारकर हँसने ) से भी बचे । " २ जहाँ किसी १. पंचहिं ठाणेहिं जीवा दुल्लभ - बोधियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं. - अरहंताणं अवण्णं वदमाणे, अरहंत- पण्णत्तस्स धम्मस्स अवणं वदमाणे, आयरिय-उवज्झायाणं अवण्णं वदमाणे, चाउवण्णस्स संघस्स अवण्णं वदमाणे. विवक्क-तव- बंभचेराणं देवाणं अवण्णं वदमाणे । २. णातिवेलं हसे मुणी । Jain Education International -ठाणांग, ठा. ५, उ. २ - सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. ९, गा. २९ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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