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ॐ ८२ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ 8
पंचेन्द्रिय-विषय की प्राप्ति की लालसा होती है और अनायास या थोड़े से आभास से मिल जाता है या किसी स्वार्थ की पूर्ति या धन-प्राप्ति हो जाती है तो मनुष्य को अत्यन्त हर्ष होता है, हर्ष के मारे वह नाच उठता है, यह अतिहास्य भी कभी-कभी हार्ट फेल का कारण बन जाता है, हास्य मोहनीय कर्म बँधता है सो अलग। एक गरीब धोबी को सूचना मिली कि तुम्हारे नाम से एक लाख रुपयों की लाटरी खुली है, वह हर्ष के मारे नाच उठा। इसी अतिहर्ष-अतिहास्य के कारण उसका वहीं हार्ट फेल हो गया। 'तत्त्वार्थ राजवार्तिक' में कहा गया है-“उत्ग्रहास, दीनतापूर्वक हँसी कामविकारपूर्वक हँसी, विदूषक बनकर भाण्ड कुचेष्टा से लोगों को हँसाना, प्रत्येव व्यक्ति की हँसी उड़ाना आदि हास्य वेदनीय (नोकषाय) आस्रव (बन्ध) के कारण हैं।"१ इसीलिए 'आचारांगसूत्र' में कर्ममुक्ति साधक के लिए कहा गया है वि "साधक सभी प्रकार के हास्यों का परित्याग करके इन्द्रिय-निग्रह तथ मन-वचन-काया को तीव्र गुप्तियों से गुप्त (नियंत्रित) करके विचरण करे।"२
संसार में कई कामभोगों में आसक्त मनुष्य अपने मनोविनोद के लिए प्राणिवध करता है, वह भी हास्य मोहनीय तीव्र कर्मबन्ध का कारण है। 'आचारांगसूत्र' में कहा गया है-“वह हास्य-विनोद में आकर या हास्य-विनोद के लिए प्राणियों का वध करके खुशी मनाता है। बाल = अज्ञानी को इस प्रकार के हास्य आदि विनोद से क्या लाभ है? ऐसा करके तो वह (उन जीवों के साथ) अपना वैर ही बढ़ाता है।"३ अतः हास्य नोकषाय से बचने के लिए मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति मौन, यत्नाचार, भाषासमिति आदि का आलम्बनं लेना चाहिए। रति-अरति नोकषाय : क्या और कैसे ?
हास्य के बाद रति और अरति ये दो नोकषाय हैं। इनकी गणना अष्टादश पापस्थानों में भी की गई है। रति और अरति का सामान्यतया अर्थ होता हैपंचेन्द्रिय विषय-सुखों में प्रीति रति है और इनके संयम में अप्रीति अरति है 'अठारह पापस्थानों में प्रवृत्ति से पतन, निवृत्ति से उत्थान' शीर्षक निबन्ध में इन दोनों के विषय में पर्याप्त प्रकाश डाला है। रति-अरति वेदनीय (नोकषाय मोहनीय के कारणों के विषय में 'राजवार्तिक' में कहा गया है-“विचित्र क्रीड़ा, दूसरे के चित्त को आकर्षित करना, बहुपीड़ा, देशादि के प्रति अनुत्सुकता, प्रीति (आसक्ति) १. उत्प्रहासादीनाभिहासित्व-कन्दर्पोपहसन-बहुप्रलापोपहास-शीलताहास्यवेदनीयस्य।
-तत्त्वार्थ राजवार्तिक ६/१४/३/५२५/८ २. सव्वं हासं परिचज्ज अल्लीणगुत्तो परिव्वए। -आचारंग, श्रु. १, अ. ३, उ. ३ ३. अवि से हासमासज्ज, हताणंदीति मण्णति। __ अलं बालस्स संगेण, वेरं वड्ढेति अप्पणो॥
-वही, श्रु.१, अ. ३, उ. २
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