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________________ कषायों और नोकषायों का प्रभाव और निरोध ८३ उत्पन्न करना रति वेदनीय आसव के कारण हैं तथा रति विनाश, पापशील व्यक्तियों की कुसंगति, अकुशल क्रिया को प्रोत्साहन देना अरति वेदनीय आनव के कारण हैं।' रति- अरति से बचने के लिए संयम - असंयम का विवेक, अप्रमाद और यत्नाचार करना आवश्यक है। शोक नोकषाय : स्वरूप और हानि चौथा नोकषाय है - शोक। शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक चिन्ता, उद्विग्नता, रुदन, संताप, आर्त्तध्यान, विलाप, तनाव आदि सब शोक के ही रूप हैं। किसी उपकारी या हितैषी अथवा स्वार्थसाधक से सम्बन्ध टूट जाने या इष्ट के वियोगअनिष्ट संयोग हो जाने से अथवा किसी प्रिय वस्तु के नष्ट हो जाने, चुराये जाने या किसी प्रकार से वियोग हो जाने पर जो व्याकुलता - उद्विग्नता, चिन्ता - फिक्र होती है, उसे शोक कहते हैं। जिसके उदय से शोक होता है, वह शोक नोकषायरूप चारित्रमोहनीय कर्म है । शोक करने से मोहनीयरूप पापकर्म का बन्ध होता है । शोक वेदनीय (नोकषाय मोहनीय) आस्रव के कारण ये हैं- स्वशोक, प्रीति के लिए पर का शोक करना, दूसरों के मन में दुःख उत्पन्न करना, शोक से व्याप्त का अभिनन्दन करना आदि।? शोक करने से मनुष्य आर्त्तध्यानवश स्वयं भी दुःखी होता है और दूसरों को भी दुःखी करता है । वाल्मीकि ऋषि का कथन है- " शोक धैर्य को नष्ट कर देता है, शास्त्रज्ञान को भुला देता है। इतना ही नहीं, शोक समस्त गुणों को नष्ट कर देता है। इसलिए शोक जैसा दूसरा कोई शत्रु नहीं है ।" शोक के वशीभूत मनुष्य में जप, तप, सुख, शान्ति, संयम, इन्द्रिय-निग्रह और समाधि कहाँ रहती है ? और कहाँ टिकता है उसके पास धन, बल, घर और गुण ? चक्रवर्ती की रानी श्रीदेवी ६ महीने तक शोक करके छठी नरक में उत्पन्न होती है। शोक के समय मनुष्य के सभी सुख चले जाते हैं, धृति-मति आदि गुण भी पलायित हो जाते हैं। अतः बुद्धिमान् मनुष्य को स्वयं के तथा दूसरों के शोक को नष्ट करने या कम करने के लिए धर्मध्यान में चित्त लगाना चाहिए। पर वस्तु नाशवान् है, क्षणिक है, ऐसा वस्तुस्वरूप समझकर शाश्वत आत्मा में, आत्म-भावों या आत्म-गुणों में रमण १. ( क ) विचित्र - परक्रीड़न-परसौचित्यावर्जन-बहुविधपीड़ाभाव-देशाद्यनौत्सुक्य-प्रीतिसंजननादि-रतिवेदनीयस्य । (ख) परारति प्रादुर्भावन - रतिविनाशन- पापशील-संसर्गता-कुशलक्रिया-प्रोत्साहनादिः अरतिवेदनीयस्य ॥ - राजवार्तिक ६/१४/३/५२५/८ -सर्वार्थसिद्धि ६/११/३२८/१२ २. (क) अनुग्राहक सम्बन्ध-विच्छेदेवैक्लव्य-विशेषः शोकः । (ख) स्वशोकामोद-शोचन-परदुःखाविष्करण-शोकप्लुताऽभिनन्दनादिः शोकवेदनीयस्य । Jain Education International - राजवार्तिक ६/१४/३/५२५/८ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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