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________________ ॐ ८४ 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ करना चाहिए। वियोग होना प्रत्येक सजीव-निर्जीव पदार्थ का स्वभाव है। उसके वियोग में मोहवश शोक करके कर्मबन्ध करने की अपेक्षा पंच-परमेष्ठी का स्मरण, नाम जप, कषाय-उपशमन आदि का प्रयत्न करना चाहिए। तभी कर्ममुक्ति के मार्ग में आगे बढ़ा जा सकता है। वस्तुतः वे ही महापुरुष हैं, जो संसार के परमार्थ को जानकर अनार्य शोक प्रसार के कदापि वशीभूत नहीं हुए। भय नोकषाय : क्या, कितने प्रकार एवं बचने का उपाय ? • पाँचवाँ नोकषाय भय है। जिस कर्म के उदय से सात प्रकार का भय या उद्वेग उत्पन्न होता है, वह भय है। भय मोहनीय कर्म : संवर और निर्जरा में बाधक . योगीश्वर आनन्दघन जी ने कहा-"भय चंचलता जे परिणामनी रे।"-जिन कर्मस्कन्धों के उदय के कारण जीव के परिणामों में भयजनित चंचलता आ जाती है, वही भय है। __ भय जीवन में तथा साधना के विषय में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा पैदा करता है, साथ ही कितने ही भय अविश्वास, प्रेम-भंग, द्वेष, वैर-विरोध, शत्रुता आदि भी पैदा कर देते हैं। भय जीवन-व्यवहार के किसी सत्कार्य में भी पुरुषार्थ करने में बाधक बनता है। जीवन की अटपटी घाटियों में यदि मानव डर-डरकर चलता है, तो किसी भी सत्कार्य में, कर्तव्य-पालन में उसको सफलता प्रायः नहीं मिलती दूसरों को भय उत्पन्न करने, आतंक पैदा करने या डराने-धमकाने से भय नोकषाय कर्म बँधता है। इसलिए कर्ममुक्ति के साधक को निर्भयतापूर्वक अहिंसा, सत्र आदि की साधना करनी चाहिए। साधना के साथ भय हो तो साधना से जितन कर्मक्षय होना चाहिए, उतना नहीं हो पाता, सकामनिर्जरा तथा संवर का लाभ नर्ह मिल पाता। १. (क) शोको नाशयते धैर्य, शोको नाशयते श्रुतम्। शोको नाशयते सर्वं, नास्ति शोकसमो रिपुः॥ -वाल्मीकि रामायण २/६२/१५ (ख) क्व जपः क्व तपः क्व सुखं क्व शमः, क्व यमः क्व दमः क्व समाधि-विधिः। क्व धनं क्व बलं क्व गृहं क्व गुणो, बत शोकवशस्य नरस्य भवेत्॥ -सुभाषितमाला, भा. २ (आ. हस्तिमल्ल जी) । (ग) ते णवरं महापुरिसा जे य अणज्जेण सोय-पसरेण। णं वसीकया कयाइ वि, जाणिय संसार-परमत्था॥ -वही, भा. २ २. जस्स कम्मस्स उदएणं जीवस्स सत्त भयाणि समुपज्जति तं कम्मं भयं णाम। -धवला १३/५, ५/९६/३६१ ३. 'आनन्दघन चौबीसी' में संभवनाथ भगवान की स्तुति से भाव ग्रहण। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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