SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ ७४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ * ज्ञान का मद भी मनुष्य को ज्ञानवृद्धि से वंचित कर देता है श्रुत (ज्ञान) का मद भी महान् अनर्थकर है। ज्ञान का मद करके व्यक्ति बाजी हार जाता है, नयी ज्ञान-प्राप्ति से वंचित स्थूलिभद्र जैसे ज्ञानी महात्मा को सेणा,.. वेणा, रयणा आदि साध्वी बहनें वन्दना करने गईं तो उन्हें ज्ञान का ऐसा मद चढ़ा कि मैं अपनी बहनों को अपने ज्ञान का चमत्कार बताऊँ कि मैं भी कुछ हूँ। अतः उन्होंने गुफा में सिंह का रूप धारण कर लिया। साध्वी बहनें तो डरकर भाग गईं। परन्तु उनके गुरु भद्रबाहु स्वामी ने देखा कि इसे ज्ञान पचा नहीं है। अतः उन्होंने आगे के ४ पूर्वां का पाठ अर्थ सहित नहीं पढ़ाया। थोड़े-से अभिमान के कारण कितनी हानि हुई ? एक आचार्य को बहुत शास्त्रज्ञान था। कई शिष्य उनसे बार-बार प्रश्न पूछकर सन्तुष्ट थे। किन्तु आचार्य को ज्ञान का अभिमान हो गया। उक्त मान कषाय के कारण ऐसे कर्म बाँधे कि आगामी जन्म में ‘मा रुष मा तुष' ये दो वाक्य भी याद करना कठिन हो गया। वर्षों तक पाठ करते रहने पर भी यह पाठ याद न हुआ। अन्त में साढ़े बारह वर्ष तक आयम्बिल तप करने पर उसे केवलज्ञान प्राप्त हुआ। अतः ज्ञान के साथ विनय हो तभी ज्ञान फलता-फूलता है, बढ़ता है। ऐश्वर्यमद का त्याग करना ही श्रेयस्कर है __ऐश्वर्य या वैभव, सत्ता, पद या अधिकार का मद भी मनुष्य का होश भुला देता है। 'प्रभुता पाय काई मद नाही' यह कहावत प्रसिद्ध है। धन का नशा बड़ों-बड़ों को नम्रता एवं विरभिमानता से दूर फेंक देता है। दशार्णभद्र राजा को भगवान महावीर को वन्दन करने जाने से पहले विचार उठा-“आज तक कोई न गया हो, ऐसी ऋद्धि-सिद्धि का प्रदर्शन करते हुए जाऊँ।" इस विचार के अनुसार वह बड़ी विशाल चतुरंगिणी सेना सजाकर राजशाही ठाट-बाट के साथ भगवान के दर्शनार्थ उसने प्रस्थान किया। परन्तु सौधर्मेन्द्र ने वैभव के अभिमान का यह ताना-बाना देखकर उसके अभियान को चूर-चूर करने हेतु उससे दुगुनी ऋद्धि-सिद्धि के साथ स्वर्गलोक से उतर आया। परन्तु दशार्णभद्र राजा भौतिक वैभव-प्रदर्शन की इस प्रतिस्पर्धा में हारने लगा। अन्त में दशार्णभद्र राजा के मन में अन्तःस्फुरणा हुई-“सब कुछ त्यागकर प्रभु के पास भागवती दीक्षा ग्रहण कर लूँ तो इस आध्यात्मिक वैभव की प्रतिस्पर्धा में इन्द्र नहीं टिक सकेगा।" वही हुआ। इन्द्र दशार्णभद्र राजा के चरणों में नमन करके कहने लगा-“आपके इस आध्यात्मिक वैभव की बराबरी मैं नहीं कर सकता। धन्य हैं आप !" अतः १. (क) 'परिशिष्ट पर्व, सर्ग ८-९' से भाव ग्रहण __ (ख) 'माषतुस की कथा' से भाव ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy