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________________ * कषायों और नोकषायों का प्रभाव और निरोध * ७३ * तपोमद भी कितना अनिष्टकारक ? तपस्या का मद एक प्रकार से तपस्या का अजीर्ण है। कई दफा बड़ी-बड़ी तपश्चर्या करने वाले अथवा लोगों को प्रबल प्रेरणा करके बाह्य दीर्घ तप कराने वाले साधकों को इस पर अभिमान हो जाता है। जैसे क्रोध करने से तपस्या विफल हो जाती है, वैसे ही बाह्य तप करके जरा-सा भी अभिमान करके, दूसरों की परिस्थिति का विचार किये बिना उनके समक्ष अपनी तपस्या की डींग हाँककर जबरन बाह्य तपस्या करने की प्रेरणा करने वाले सारे तप पर पानी फिरा देते हैं। कूरगडुक मुनि का उपहास करने वाले साथी उत्कट तपस्या करते थे, किन्तु क्रोध और अहंकारवश वे तप करके भी घातिकर्मों का क्षय न कर सके और कूरगडुक मुनि बाह्य तप न करके भी समभाव, परीषह-सहन और विनय तप के कारण बाजी जीत गये, केवलज्ञान प्राप्त कर चुके। अतः बाह्य तप हो या आभ्यन्तर तप, उसके साथ क्रोध, अभिमान, माया, लोभ आदि का त्याग करने से तथा क्षमा, विनय, सरलता, समता और मृदुता से तपोमद से होने वाले अनिष्टों से बचा जा सकता है। संभूति मुनि को अपने तप का गर्व हुआ और हस्तिनापुर में नमुचि मंत्री द्वारा अपना अपमान हुआ देख उसने तेजोलेश्या छोड़ी, जिससे सारी नगरी में धुंआ छा गया। चक्रवर्ती सनत्कुमार को पता लगा तो सपरिवार मुनि के पास आकर अपने अकृत्यों के लिए क्षमा माँगी। चक्रवर्ती की रानी के कोमल केशपाश के स्पर्श से संभूति मुनि ने नियाणा कर लिया-मेरी तपस्या का कुछ फल हो तो ऐसा स्त्रीरत्न और वैभव मिले। बस तपःसाधना को मटियामेट कर बैठेसंभूति मुनि।' . लाभमद : जीवन को दुर्गति और आर्तध्यान में डालने वाला किसी असाधारण वस्तु का लाभ प्राप्त होने का मद भी भयंकर पतन का कारण है। सुभूम चक्रवर्ती षट्खण्ड पर विजय प्राप्त करके चक्रवर्ती बना। परन्तु चक्रवर्ती पद का लाभ होने पर उसके मन में गर्व हो गया कि मुझे अब सदैव सर्वत्र लाभ ही लाभ है। अतः षट्खण्ड विजय के पश्चात् सातवाँ खण्ड साधने की उसकी तीव्र इच्छा हुई। लवणसमुद्र के किनारे ससैन्य आया। सामने घातकीखण्ड क्षेत्र था, जिसे जीतना चाहता था। आकाशवाणी ने तथा हितैषियों ने उसे मना किया। परन्तु लाभमदग्रस्त सुभूम ने एक न सुनी। तीव्र मदाक्रान्त होकर युद्ध करने गया, लेकिन लवणसमुद्र में गिरकर मरण-शरण हो गया, सप्तम नरक में गया। अतः लाभमद से साधक को सदा बचना चाहिए। १. 'उत्तराध्ययनसूत्र वृत्ति, अ. १३' से भाव ग्रहण २. 'त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र ६/४' से भाव ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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