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ॐ ७२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ 8
फल २७वें भव (तीर्थंकर भव) में प्राप्त हुआ महारानी त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में जन्म लेने से पूर्व ८२ दिन तक देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में रहना पड़ा। यह था कुलमद करने का कर्मसत्ता द्वारा दण्ड। बलमद के कारण शक्ति का दुरुपयोग करने वाले नरकगामी होते हैं
बलमद भी मनुष्य को अधमगति में पहुँचा देता है। शक्ति के अभिमान, उसमें भी इस भौतिक मिट्टी के पिण्ड (शरीर) की शक्ति को गर्व से उन्मत्त होकर मनुष्य स्वयं को सर्वशक्तिमान, अजर-अमर समझने लगता है। राजा श्रेणिक. ने शक्ति का अभिमान करके एक तीर के निशाने से एक गर्भवती हरिणी का वध किया, फिर अपनी शक्ति का अभिमान किया। फलतः राजा श्रेणिक को नरक का मेहमान बनना पड़ा। इतना जरूर हुआ कि उसे भगवान महावीर की भक्ति के निमित्त से क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त हुआ। बाहुबली ने अपनी शक्ति का आत्म-हित में सदुपयोग किया
अतः जैसे बाहुबली ने अपने मुष्टिबल का भरत चक्री पर प्रहार न करके उसने अपने ही अहंकार को मुण्डित करने हेतु पंचमुष्टिक केश लोच कर लिया। इसी प्रकार शक्ति का मद करके दुरुपयोग न करके आत्म-हित में सदुपयोग करना ही श्रेयस्कर है।२ रूपमद का दण्ड : सनत्कुमार चक्री
रूपमद भी घोर कर्मबन्ध का कारण है। सनत्कुमार चक्रवर्ती को अपने रूप-सौन्दर्य का अभिमान था। उसी मान कषाय के उदय में आने के कारण उनके शरीर में सोलह भयंकर रोग प्रकट हुए। मल, मूत्र, दुर्गन्ध एवं रोग से भरे इस शरीर के रूप-सौन्दर्य पर गर्व करना उन्हें घोर अनर्थकर लगा। फलतः संसारविरक्त हो वे मुनि बन गये। घोर तपश्चर्या के प्रभाव से उन्हें कुछ लब्धियाँ भी प्राप्त हुईं। परन्तु उन्होंने उनका प्रयोग न करके कुष्टादि व्याधि के साथ मैत्री करके समभावपूर्वक कष्ट सहन किया। उन्होंने समस्त कर्मरोगों को नष्ट कर दिया। वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए। रूपमद से बचने का अनूठा उपाय था यह।३
१. आद्योऽहं वासुदेवानां, पिता मे चक्रवर्तिनाम्। ___पितामहस्तीर्थकृतामहो ! मे कुलमुत्तमम्॥ २. (क) 'ठाणांग वृत्ति ४/३' से भाव ग्रहण
(ख) त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित, पर्व १' से भाव ग्रहण ३. 'उत्तराध्ययनसूत्र वृत्ति, अ. १८' से भाव ग्रहण
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