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* कषायों और नोकषायों का प्रभाव और निरोध ७१
जातिमद के कारण मेतार्य चाण्डाल जाति में उत्पन्न हुए
इसी प्रकार उज्जयिनी नगरी के राजपुत्र और पुरोहित - पुत्र दोनों गाढ़ मित्रों ने सागरचन्द्र मुनि से दीक्षा ग्रहण की। संयम - पालन करते हुए भी पुरोहित - पुत्र अपने स्वभावानुसार ब्राह्मणत्व का गुणगान करते और जात्यभिमान करते रहते थे । इसके कारण उन्होंने नीच गोत्रकर्म बाँध लिया । यद्यपि चारित्र - पालन के कारण दोनों मित्र मुनि देवलोक में गये । पुरोहित - पुत्र (भू. पू. मुनि) नीच गोत्रकर्म के उदयवश राजगृह में मेहर चाण्डाल की पत्नी मेती चाण्डाली की कुक्षि से उत्पन्न हुआ। नाम रखा गया मेतार्य । मेतार्य को जाति के मद (अहंकार) ने नीच जातीय चाण्डाल जाति में लाकर पटक दिया, जहाँ पर पद पर तिरस्कार, अपमान, भर्त्सना एवं तिरस्कार होता था । किन्तु पूर्व पुण्य प्रबलता के फलस्वरूप पूर्व मित्रदेव द्वारा वैराग्य का उपदेश पाकर भगवान महावीर से मुनि दीक्षा ग्रहण की। मासक्षपण की तपस्या करने लगे। संयम ग्रहण करने के बाद जाति - कुल का कोई प्रश्न नहीं रहता । अब तो समस्त कर्मों से मुक्ति पाने की धुन लगी थी । समभाव उनके रोम-रोम में रम गया था। पारणे के दिन एक स्वर्णकार के यहाँ भिक्षा के लिए गये | सुनार सोने hat मेज पर रखकर मुनि को भिक्षा देने गया । पीछे से एक क्रौंच पक्षी चावल के दाने समझकर उन्हें खा गया । सुनार को वे सोने के जौ नहीं मिले तो मुनिवर पर शंका हुई। दौड़कर वह मुनि मेतार्य को वापस लेकर आया । उन्हें धूप में खड़े रखकर उनके सिर पर गीले चमड़े का पट्टा बाँधा । फिर मुनि से सख्ती से पूछताछ करने लगा। मुनि ने वहाँ क्रौंच पक्षी को देखा था, पर उन्होंने इसलिए न बताया कि यदि बताऊँगा तो अभी उसे मार डालेगा । अतः मौन रहकर समभाव से उक्त घोर उपसर्ग सहन किया। फलतः क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर समस्त कर्मों का क्षय करके वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए।' अतः जाति-कुल आदि के अभिमान से जन्य कर्मों से बचने का उपाय यह है कि व्यक्ति समभाव में स्थिर रहे, तप, संयम, त्याग आदि 'द्वारा पूर्वकृत कर्मों का क्षय करे।
कुलाभिमान के कारण भगवान महावीर को देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में रहना पड़ा
भगवान महावीर ने मरीचि के भव में अपने कुल का अभिमान किया था और नाचकर सिंहनाद किया- " मैं प्रथम वासुदेव बनूँगा, मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती हैं और मेरे पितामह प्रथम तीर्थंकर हैं। मैं भी वासुदेव, चक्रवर्ती और तीर्थंकर बनूँगा ।" इस प्रकार कुलमद के नशे में उन्मत्त होकर नीच गोत्रकर्म बाँधा, जिसका
१. 'उपदेशमाला' (धर्मदासगणि), पृ. २६७ से संक्षिप्त
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