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* कषायों और नोकषायों का प्रभाव और निरोध ६९
फलस्वरूप उसे सुख-शान्तिमय अनुभव (वेदन ) होता है, सुख-साधन और धर्मानुलक्षी शुभ भाव प्राप्त होते हैं। गोपाल - पुत्र संगमा को मासक्षपण तपस्वी मुनिवर जैसे सुपात्र को शुभ भावपूर्वक खीर का दान उत्कट भावों से देने से उत्कट पुण्यबन्ध हुआ । उसके फलस्वरूप गोभद्र सेठ के यहाँ जन्म तथा अपार ऋद्धि के स्वामी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इतना ही नहीं, उसने ( शालिभद्र ने ) अपार ऋद्धि समृद्धि-सम्पदा पाकर भी अभिमान नहीं किया और उसका स्वेच्छा से त्याग करके निर्जरा भी की, महान् पुण्यबन्ध भी किया। इसी प्रकार निःस्वार्थभाव से श्रद्धा-भक्तिपूर्वक साधुओं की सेवा वैयावृत्य करने से नन्दीषेण मुनि को उत्कृष्ट पुण्यबन्ध के फलस्वरूप अपाररूप सम्पदा मिली।' ज्ञानोपार्जन की श्रुत - साधना के फलस्वरूप श्रुत-सम्पदा मिलती है। किसी जाति, कुल, समाज, राष्ट्र या देश की निःस्पृहभाव से सेवा करने, त्याग तपस्या करने से उच्च जाति, उच्च कुल आदि प्राप्त होते हैं, अभिमान से नहीं। फिर ये सब उपलब्धियाँ अपनी साधना के फलस्वरूप मिलती हैं। किसी भगवान या देवी- देव के देने से नहीं मिलतीं ।
मद करने वाले को हीन या विपरीत दशा प्राप्त होती है
पूर्वोक्त उत्तम जाति, कुल, बल आदि को पाकर यदि मद (अहंकार) करता है, उसके नीच गोत्र आदि पापकर्मबन्ध होने से कर्म सत्ता ऐसी भयंकर सजा देती है । वाचकवर्य उमास्वाति ने 'प्रशमरति' में स्पष्ट कहा है
“जात्यादि - मदोन्मत्तः पिशाचवद् भवति दुःखितश्चेह । जात्यादि-हीनतां परभवे च निःसंशयं लभते ॥”
- जो व्यक्ति इस जन्म में पिशाच की तरह उन्मत्त होकर जाति, कुल, बल, रूप, ऐश्वर्य (धन-सम्पत्ति), तप, लाभ, श्रुत ( शास्त्र ) ज्ञान आदि का मद करता है, वह मदोन्मत्त होकर यहाँ भी दुःख पाता है और पर - भव (परलोक) में भी जाति, कुल आदि में से जिस विषय में मद किया है, निःसन्देह उस विषय में हीनताविपरीत दशा - प्राप्त करता है । जैसे- जाति, कुल का मद (अहंकार) करने वाला हीन ( हल्की, नीच) जाति, कुल पाता है। धन-सम्पत्ति का अभिमान करता है तो आगामी भव में दरिद्रता, दीन-हीन दशा प्राप्त करता है। तप का अहंकार करने वाले को तप करने की शक्ति एवं भावना प्राप्त नहीं होती । बल और रूप का अभिमान करने वाले को निर्बलता और कुरूपता प्राप्त होती है। अपनी उपलिब्धयों
१. (क) देखें - स्थानांगसूत्र वृत्ति में अंकित शालिभद्र चरित्र
(ख). 'प्रशमरति' से भावांश ग्रहण
(ग) पाप की सजा भारी, भा. २' से भावांश ग्रहण, पृ. ५८५, ५८८
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