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* ६८ * कर्मविज्ञान : भाग ७ *
बैठता है। परिवार, समाज, राष्ट्र एवं धर्म-सम्प्रदाय में भी अभिमानी व्यक्ति अहंकार के नशे में चूर होकर स्वच्छन्द एवं उच्छृखल होकर रहता है। अभिमान की दशा में वह हाथी की तरह मदोन्मत्त हो जाता है। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा-मान से व्यक्ति अधम गति, अधम कक्षा एवं अधम जाति में पहुँच जाता है। कर्मसत्ता नियमानुसार मान कषाय से व्यक्ति अपन के लिए ही विनाश का गड्ढा खोदता है। एक विचारक ने कहा है-अहंकार सदैव लोगों के नाश के लिए होता है, वृद्धि के लिए नहीं। जैसे-दीपक में तेल या घी समाप्त होने को होता है, तब एक बार दीपशिखा अधिक जोर से चमकती है, यही उसके विनाश की निशानी होती है, वैसे ही तीव्र अभिमान करने वाले के विनाश का समय आता है, तब वह जोर-शोर से अभिमान की तर्ज में बोलता-लिखता है। यही उसके पतन = विनाश की निशानी है। विनाशकाल में बुद्धि विपरीत हो जाती है, यह कहावत अक्षरसः सत्य है। बाहर से स्थूलदृष्टि से अभिमानी फलाफूला दिखता हो, अन्दर से खोखला
और थोथा होता है। 'थोथा चना, बाजे घना' यह कहावत उस पर ठीक लागू होती है। जो व्यक्ति जाति, कुल, बल, रूप आदि का अभिमान करता है उसे भविष्य में नीच जाति, नीच कुल, दुर्बलता, कुरूपता आदि कर्मनियमानुसार मिलते हैं। रोटी पचाना आसान है, मिष्टान्न पचाना भी कठिन नहीं है, किन्तु अभिमानी के लिए सुख-सम्पत्ति, ऐश्वर्य, रूप, बल, ज्ञान, तप आदि का पचाना बहुत ही कठिन है।' आत्मार्थी एवं कर्ममुक्ति का इच्छुक व्यक्ति ही धीर-गम्भीर बनकर इन चीजों को पचा सकता है और अनायास ही इनका नम्रतापूर्वक परांर्थ या परमार्थ में उपयोग करके इनसे आस्रव और बन्ध के बदले संवर और निर्जरा उपार्जित कर सकता है। पुण्यानुबन्धी पुण्य भी वह इन वस्तुओं से प्राप्त कर सकता है। धन-सम्पत्ति आदि सब पूर्वकृत पुण्य के फलस्वरूप मिलते हैं
मान कषाय-विजेता साधक सदा यह सोचता है कि मुझे यह धन-सम्पत्ति, सत्ता, पद, अधिकार, बल, वैभव, रूप, अच्छा कुल, जाति, ज्ञान आदि किस कारण से व क्यों मिले हैं ? ये सब अनायास ही नहीं मिलते हैं। पूर्व-जन्म में उपार्जित प्रचुर पुण्य के फलस्वरूप ये सब शुभ संयोग से मिलते हैं। जब कोई मनुष्य पूर्व-जन्म में या इस जन्म में परोपकार करने, दूसरों के जीवन को धर्ममय-नीतिमय, पुण्यशाली बनाने हेतु यदि त्याग, तप, व्रत, संयम, नियम, प्रत्याख्यान करता है या दान, पुण्य, परमार्थ करता है, तो उस पुण्योदय के
१. (क) अहंकारो हि लोकानां, नाशाय, न तु वृद्धये।
यथा विनाशकाले स्यात, प्रदीपस्य शिखोज्ज्वला॥ (ख) 'पाप की सजा भारी, भा. २' से भाव ग्रहण, पृ. ५७९-५८०
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