SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * कषायों और नोकषायों का प्रभाव और निरोध ६७ नहीं देगा। ‘प्रशमरति’ में कहा गया है- “ श्रुत, शील और विनय के दूषण रूप तथा धर्म, अर्थ और काम के विघ्नरूप, ऐसे मान कषाय को कौन बुद्धिमान् या पण्डित (पापों से डरने वाला) एक मुहूर्त के लिए भी आश्रय देगा ?” मान कषाय की पहचान जिस तरह एक चिकित्सक रोगी के लक्षण देखकर रोग का निदान करता है, उस रोग को पहचान जाता है; इसी प्रकार जब मान कषाय का भूत पूर्वोक्त रूपों में से किसी भी रूप में, किसी भी निमित्त से किसी पर सवार होता है, तब उसके चिह्न साफ-साफ नजर आ जाते हैं। अनुमान से, चाल-ढाल से, उसके मुखमण्डल से, उसकी वेशभूषा और भाषा से अभिमानी की पहचान हो जाती है। जब मनुष्य मान ज्वर से ग्रस्त होता है तो घमण्ड में चलता है, उसकी दृष्टि भी प्रायः ऊपर उठी हुई होती, उसकी चाल भी वक्र होती है, उसकी बोली में भी अहंकार का स्वर प्रस्फुटित होता है। अभिमानी व्यक्ति - " मैंने ऐसा किया है। यह तो मैं ही था कि ऐसा कर सका। मैं तो सब कुछ कर सकता हूँ। मेरे में जितनी ताकत है वह अन्य किसी में नहीं है ।" इस प्रकार बात-बात में मैं-मैं करता है। दूसरों को वह अपनी तुलना में सबको तुच्छ समझता है। दूसरों को हल्का - नीचा दिखाकर अपने आपको बड़ा दिखाने की उसकी वृत्ति होती है। भाषा में स्व-प्रशंसा और पर - निन्दा की गन्ध प्रायः दिखाई देती है । अभिमानी को दूसरों की प्रशंसा पसन्द नहीं होती । अहंकारी व्यक्ति में विनय, विवेक, नम्रता और मृदुता का भाव बहुत कम होता है । वह अपने से धन, विद्या, बल, रूप, तप, वैभव, पद, लाभ, जाति, कुल आदि में न्यून व्यक्तियों का तिरस्कार, अपमान, घृणा, ईर्ष्या करते हुए प्रायः नहीं चूकता । इस प्रकार मान कषाय को पहचानने के सैकड़ों चिह्न हैं । मान कषाय से कितनी हानि, कितना पतन ? मान कषाय चारित्रमोहनीय कर्म के अन्तर्गत है, जिसकी उत्कृष्ट स्थिति ७० क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपमकाल की है। मान आत्म - गुणों का घातक है, आत्मा के अव्याबाध निराकुल सुख में बाधक है। वह नम्रता, मृदुता, विनय, कृतज्ञता आदि सद्गुणों का विनाशक है। कई दफा अभिमानी जीव स्वभाव से उद्धृत, उच्छृंखल, मर्यादाहीन होकर असामाजिक, अराजक एवं निरंकुश भी बन जाता है, मोहमूढ़ होकर वह अहिंसा, समता, क्षमा, सरलता, नम्रता आदि गुणों को भी तिलांजलि दे १. (क) श्रुत-शील - विनय - संदूषणस्य धर्मार्थ- कामविघ्नस्य । मानस्य कोऽवकाशं मुहूर्तमपि पण्डितो दद्यात् ॥ (ख) 'पाप की सजा भारी, भा. २' से भाव ग्रहण, पृ. ५७८-५८० Jain Education International For Personal & Private Use Only - प्रशमरति www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy