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ॐ ६४ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ *
श्रावकाचार' में कहा है-"क्रोध में अन्धा पुरुष पास में खड़ी माँ, बहन और बच्चे को मार डालता है।"१ ___ अतः किसी भी प्रकार से, किसी भी निमित्त से होने वाले उत्कट या मन्द क्रोध कषाय को शान्त, निरुद्ध एवं क्षीण करने के लिए तथा क्रोध से होने वाले अशुभ कर्मबन्ध से बचने के लिए उपशम, क्षमा, सहिष्णुता, समभाव, मौन, आत्म-स्वरूपरमण, शान्ति, धैर्य एवं प्रतिक्रिया-विरति; ये ही ठोस उपाय हैं। इन्हें अजमाने से आत्मा की किसी प्रकार की क्षति नहीं होती, आत्म-क्षमता बढ़ती है और अकषाय-संवर तथा कर्मनिर्जरा उपलब्ध हो सकती है। अकषाय-संवर एवं समभाव से कर्मक्षय
उनका नाम तो कुछ और था, लेकिन उन्हें सभी साधु कूरगडु कहते थे। शारीरिक क्षीणता और अशक्ति के कारण वे उपवासादि बाह्य तप नहीं कर सकते थे। थोड़ा-सा भी जैसा-तैसा आहार मिला तो भी उसे संतोष और शान्ति के साथ सेवन कर लेते थे। उनके साथी मुनिगण मासखमण की तपश्चर्या करते थे, किन्तु उनकी तपस्या के साथ क्रोध और अहंकार की मात्रा अधिक थी। कूरगडु मुनि प्रतिदिन भिक्षा के लिए जाते तो उन तपस्वी मुनियों को बहुत क्रोध उमड़ता और वे उन्हें उपालम्भ देते, डाँटते-फटकारते और 'अन्न के कीड़े' कहकर चिढ़ाते थे। किन्तु शान्त, सहिष्णु कूरगडु मुनि उनके कटु वचनों को सुनकर न तो प्रतिवाद करते थे, न ही क्रुद्ध होते थे, वे शान्ति से सहते व समभाव में लीन हो जाते थे। नम्रतापूर्वक बाह्य तप की अशक्ति के लिए पश्चात्ताप प्रगट करते थे। एक दिन वे भिक्षा में प्राप्त आहार उन तपस्वी मुनियों को दिखाने गये तो उन्हें इतना क्रोध आया कि उन्होंने आहार के पात्र में थूक दिया। वे शान्तिपूर्वक उस आहार को लेकर एकान्त में भोजन करने बैठे। चिन्तन की पवित्र धारा अन्तर से फूटी कि हे जीव ! आज तू धन्य हुआ, कृतार्थ हुआ, तपस्वियों की लब्धि तुझे प्राप्त हुई है। प्रभो ! मुझमें भी उपवासादि तप करने की शक्ति प्रगटे ! यों पवित्र भावना से ज्यों ही आहार का पहला कौर लिया कि पश्चात्ताप एवं समभाव से क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो गये। चार घातिकर्मों का क्षय हुआ। केवलज्ञान प्रकट हुआ। देवगणों को उनके समीप आते देख आक्रोश एवं ईर्ष्यावश उन तपस्वी मुनियों ने कहा-"तपस्वी तो हम हैं, उस प्रतिदिन भोजी के पास क्यों जाते हैं ?" इस पर उन देव-देवियों ने कहा"केवली की आशातना मत कीजिए, उनसे क्षमा माँगिये।' इन शब्दों को सुनते ही उन तपस्वी मुनियों की आत्मा जाग्रत हो गई। वे पश्चात्ताप की धारा में बहने लगे।
१. पासम्मि बहिणि-मायं सिसु पि हणेइ कोहंधो।
-वसुनन्दी श्रावकाचार ६७
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