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________________ * कषायों और नोकषायों का प्रभाव और निरोध ४ ६३ को भी केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । यह है - अकषाय-संवर से क्रोधादि कषायों के क्षय का अद्भुत परिणाम ! प्रचण्ड क्रोध से वैर-परम्परा और क्रूर कर्मबन्ध यदि सामने वाला क्षमाशील न हो तो क्रोध - परम्परा का कोई अन्त नहीं आता । वह वैर-परम्पराजनक तथा दुर्गतियों में बार-बार भटकाने वाला होता है। एक आचार्य ने कहा है “क्रोधः परितापकरः सर्वस्योद्वेगकारकः क्रोधः । वैरानुषंग- जनकः क्रोधः, क्रोधः सुगतिहन्ता ॥” - क्रोध परिताप, संताप, पीड़ा और दुःख देने वाला है, वह सभी को उद्विग्न कर देता है। वस्तुतः क्रोध वैर-परम्परा का जनक है और सुगति का नाशक है।” परशुराम ने अपने प्रचण्ड कोप से सारी धरती निःक्षत्रिय बना दी थी, इसके विपरीत सुभूम चक्रवर्ती ने अतिक्रोध करके सारी ब्राह्मण जाति को समाप्त कर दिया। इन नराधमों ने व्यक्तिगत वैमनस्य के कारण क्षत्रिय जाति और ब्राह्मण जाति का सफाया करके कितना क्रूर कर्म किया ? इस दुष्कर्म का फल सप्तम नरक में ३३ सागरोपम काल तक दुःख भोगने के सिवाय क्या हो सकता था ? सच है, क्रोधावेश में बहन, बेटी, पुत्र-पुत्री, पत्नी आदि का कुछ भी भान नहीं रहता । दिल्ली में एक मजदूर ने १० रुपये का नोट लाकर पत्नी को दिया । वह नोट वहीं रखकर किसी आवश्यक कार्य से इधर-उधर गई। बच्चे ने कागज समझकर दस रुपये का नोट उठाया और कुतूहलवश चूल्हे में अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए डाल दिया। थोड़ी देर में मजदूर घर आया। नोट नहीं मिला। बच्चे ने कहा कि वह कागजं तो मैंने जलाने के लिए आग में डाल दिया। इतना सुनते ही मजदूर का क्रोध का पारा चढ़ गया। उसने छोटे से बच्चे को उठाया और आग में झौंक दिया। उसकी माँ आई, तब तक बच्चा मर गया । यह है - क्रोध का भयंकर नतीजा । इसी प्रकार की एक घटना दिल्ली में ही हुई । एक व्यक्ति ने अपने घर में माँ के आग्रह से बहन-बहनोई और भानजों को रहने के लिए मकान के एक हिस्से में कमरे दे दिये। बहनोई अपनी कमाई में से साले को आर्थिक रूप से सहायता भी करता रहता था । किन्तु उस पर स्वार्थ का भूत चढ़ा । बहन-बहनोई को भगाने के लिए उसने क्रोधावेश में आकर दोनों पर तथा बच्चों पर भी तेजाब छिड़क दिया और कमरे में आग लगा दी। माँ बचाने आई तो उसे भी मार डाला । यों उस क्रूर कषायात्मा ने अपनी माँ-बहन की भी कोई मर्यादा न रखी । इसीलिए 'वसुनन्दी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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